Monday 21 October 2019

PMC Bank Scam and Common People

 परिचय 


यूँ  तो लिखना मेरी आवारगी और मेरे इश्क़ का वो परिचय है जो चौक चौराहों पर फक्कड़पन   लिये अच्छे  या बुरे विचारों  के प्रवाह को मानवमूल्यों के चश्मे से देखता है। समझ नहीं पाता हूँ  अच्छा  लिखने के लिये आवश्यक मापदंड क्या है ? विचार या  विचारों  की आज़ादी,विद्वता या विद्वेष ,भाव या भावहीनता ,सारगर्भित या निरर्थकता , द्वन्द या अंतःद्वंड अथवा कुछ और ! ये नहीं तो कुछ और ही  सही ,पर यूँ  ही नहीं कोई कलम का सिपाही बन जाता है।यूँ  ही नहीं विचारों  को निचोड़ते ,शब्दों को निःशब्द  करते ,तपते - तपाते  धैर्य धरे कोई समर्पित कलम का "दधीचि" बन जाता है और यूं ही नहीं कोई अर्जुन सा यशस्वी  हो जाता है जो कलम की धनुष पर ,नैसर्गिक विचारों की प्रत्यंचा चढ़ा ,शब्दों के बाण  से पाखंड का आखेट करता है। मैं उपरोक्त किसी भी बात  पर शब्दशह  खड़ा नहीं उतरता हूँ क्यूंकि मैं 'आम' हूँ ,इसलिए स्वछंद लिखता हूँ।


 वैचारिक त्रिकोण -PMC

    खैर ,मुद्दे की बात करते हैं,सोचा था दीपो के उत्सव "दीपोत्सव" पर दो-एक  'शब्दों के दीये' मैं  भी जलाऊँगा परन्तु अचानक दिशा और दशा बदल गई ,मन का मतान्तर हो चला मेरी कलम से। दीये तो जलाऊँगा  जरूर पर आज नहीं  लिहाज़ा अपने शब्दों से ही सही पर उनलोगों  के साथ खड़ा होऊं जिन्होंने एक झटके में अपने जीवन भर की मेहनत की कमाई गवा दी। जी हां आज बात हर उस आम हिंदुस्तानी है,हर उस सच्चे हिंदुस्तानी है जो मेहनत करता है,जीवन के जद्दोजेहद से लड़कर गिरता और  फिर उठता है,वो एक  ईमानदार Taxpayer होता है,उनसे सरकार की तमाम उम्मीदे होती है,और वो तन,मन और धन से सरकार के निर्देशानुसार कर्तव्य पथ पर अडिग रहता है।ऐसे में अगर एक झटके में उसका सब कुछ छिन जाए,वो अकेला हो जाये,बेघर हो जाये,निराश हो जाये,उसे खाने के लाले पड़ जाए,उसी का पैसा उसे न मिले ,किसी को दवा के लिए पैसे नहीं तो किसी को बच्चे के दूध व् पढ़ाई के लिए पैसे नहीं ,उसपर से मुंबई जैसी मायानगरी,ऐसे में कोई सोलंकी ,कोई वैष्णवी क्या करे!
भ्रष्टाचार और चाटुकारिता का शिकार PMC बैंक ने अपने  ग्राहकों की दीवाली का दीवाला तो निकाला ही साथ ही जीवंत आत्मविश्वास को जिंदा जला डाला।ये एक राजनितिक  हत्या नही तो और क्या है? क्यूँ  हर बार  कुव्यवस्था का शिकार आमलोग हों ?क्या उनकी सबसे बड़ी गलती ये है वो आम आदमी है ?सरकारी तंत्र और  सरकार की जवाबदेही क्यूँ  नही तय होती है ?हर बार आम आदमी ही क्यों कटघरे में खड़ा होता है ?पैसा लेने के समय बैंक और सरकार  पूरी ताकत से आम आदमी का पैसा लेती है ,पर जब देने की बारी आती है तो जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते  हैं। जब कोई किसान बैंक का कर्ज देने में देर करता है तो फिर देखिये बैंकिंग सिस्टम को ,बड़ी ही कार्यकुशलता से किसान को इतना परेशां किया जाता है की वो आत्महत्या कर लेता है ,वही जब माल्या,नीरव जैसे वीर बैंक को हजारों  करोड़ का चूना लगाते हैं तो उन बैंकों और सरकारों की घिग्घी  बंध  जाती है।
RBI ,न सरकार,और  न ही सरकार का मुखिया एक शब्द भी उम्मीद की दे सका।दुख तो तब और  होता है,जब इन्ही पैसो का दुरुपयोग कर नेता,गुंडा ,माफिया और उनके चमचे,उस मेहनत की कमाई पर डाका डालते हैं और लोगो की उम्मीदों का कब्रगाह बना अपने सपनों की बहुमंजली इमारत खड़ा करते है।राजनीति के कुरूप चेहरे ने रावण के भेष में राम की बलि दे दी।
स्तब्ध रह  जाता हूँ जब PMC घोटाले की सोचता हूँ,रातो की नींद और  दिन का चैन लूटाए बैठे लोगों का एक एक पल किसी लोहे के चने चबाने से कम नहीं।सत्ताशीन प्रधानमंत्री जी  इस दरम्यान  उन तमाम कलाकारों से मिल रहे है,जिन्होंने हिंदुस्तान का नमक खाकर,नमकहरामी करते देर न लगाई ,जिन्हे ये देश समय समय पर असहिष्णु लगता है,जो बड़े  बंगलों  में आलीशान जीवन जीते हुए भी डरा हुआ महसूस करते हैं।मोदी जी जरा उनसे भी मिल लेते,मिलना छोड़िये Tweet कर देते तो शायद आपके शब्द  बैंक ग्राहकों के लिए ऑक्सीजन का काम जरूर  करता,लेकिन आपने शायद इसे जरूरी नहीं  समझा।
नियम कानून के जाल में फँसा आम इंसान क्या करे!बैंक में जमा पूंजी की गारंटी क्यों नहीं  होनी चाहिए ? क्यों नहीं  बैंक में जमा पूंजी Insured होनी चाहिए ?चंद लोगो के साजिश का भुक्तभोगी आमजन क्यों हो?Use And  Throw की पालिसी कब तक चलेगी?

निष्कर्ष 

संछेप में सरकार से उम्मीद करता हूँ कि दोगले और चरित्रहीन कुकृत्य की सजा आम इंसान को नहीं दी जाएगी।अन्यथा बैंक पर से भरोसा उठने लगेगा ,तब ये मत कहना कि लोगो ने साथ नहीं दिया।वैसे भी हिंदुस्तान में Taxpayer कम है और  जब उन्ही का पैसा मारा  जाने लगेगा, तो फिर लोग उसी रास्ते पर आने लगेंगे जिसपर हिन्दुतान की आधी आबादी है।जो खाना और पचाना जानती है।

आभार
कानून का योग    AUGUST KRANTI |अगस्त क्रांति  Blogging   सोने की चिड़ियाँ

Thursday 17 October 2019

कानून का योग


https://en.wikipedia.org/wiki/Floods_in_Bihar
Patna  Flood 

शीर्षक बेशक़ आपसे,हमसे साथ ही उन तमाम लोगों से जुड़ी है जो सर पर पांव रखकर "कानून का योग" करते दिखते हैं।रोजमर्रा की दौड़ में आगे निकलने की होड़ इतनी है कि खुद समय नहीं मिलता तो  सरकार मजबूरन योग कराने को विवश होती आयी है।मेरा तो मानना है कि स्वामी जी और मोदी जी ने जितने भी सार्थक प्रयास किये योग को सफल करने का ,उतने की आवश्यकता ही नहीं थी! जब काम "आने" में हो जाये तो "टका" क्यों फिजूल में खर्च करना!मतलब कानून का योग करवाइये,लोग अनुलोम-विलोम ,शीर्षासन इत्यादि स्वतः करने लगेंगे।
कानून का योग वैसे तो सरकार आमजन से करवाते ही रहती है जैसे ब्लॉक का आसन,हॉस्पिटल का आसन,पुलिसिया आसन,कचहरिया
आसान,Tax आसन , Traffic आसन  तथा अन्य विभागीय आसन ,इसके अलावा कुछ प्राइवेट जजिया आसन जैसे रंगदारी और खूनी आसन प्रमुखता से शामिल है।इन सब के साथ अगर प्रकृति भी आसन करा दे तो शारीरिक और मानसिक योगासन  पूर्ण कहलाते हैं।बिना बिजली,बिना पानी,बिना खाना,ऊपर से घर में गर्दन भर पानी ,पशु और मनुष्य साथ-साथ तैर रहे हों यानी बिना रंगभेद के सब एक हो जाते हैं ,ऊपर से डेंगू का डंका जोर शोर से बज रहा हो तो इससे बेहतर योग और क्या हो सकता है!!यह तो योग की महत्तम सीमा और रेखा को भी पार पाने जैसा है।और तब जाकर आप योग गुरु बनते हैं।
खैर,उपरोक्त शीर्षक "कानून का योग" को राजनीतिज्ञ लोग "कानून का राज" नाम से 'पुचकारते' हैं"कानून का राज है" की दास्तां प्रस्तुत करता ये आलेख मानव परिदृश्य को सरकारी डंडे से उठा-बैठक कराते राजशाही परिवेश लिये बिहारी स्वरूप को परिभाषित करने का महज एक संकल्प भर है।जरा तिरछी नजरें लिए आँखों के एक कोने से सरसरी पर ट्क-टकी निगाहें इस आलेख पर जरूर डालियेगा,"आलेख का योग" सार्थक हो जाएगा।
नजरिया बदलिए,और सरकार के चश्मे से विश्लेषण करना सीखिए तो आप चींटी से भी चासनी निकाल पायेंगे।जैसा कि मैं करने की कोशिश कर रहा हूँ।
पटना की बारिश ने पटना के लोगों का भला ही किया है।भला हो उस बारिश का ,भला हो उस नालों का तथा भला हो उन सभी पॉलीथिन और अन्य कारकों का जिसने शहर के पानी को रोके रखा नहीं तो जरा सोचिए नए नवेले Traffic Rule की इतनी भारी भरकम fine आमजन को भारी आर्थिक से ज्यादा मानसिक पीड़ा दे रही होती।जरा सोचिए,अगर बारिश न होती तो लोग रोड पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ा रहे होते! तो ट्रैफीक नियम तोड़ने के कारण दंड के भागी होते! जो पुलिस के आला अधिकारी,कमिश्नर रोड पर चश्मा लगाए धूप में खड़े होकर शिकारी बन बैठे थे, उनकी तो सारी मछली ही हाथ से निकल गई।
पटना के जलजमाव ने कमजोर पड़ती आर्थिक नसों को भी कसने का काम किया है।पानी में 10 हजार से ज्यादा वाहन बर्बाद हो गए,यानी अब नए वाहन खरीदे जाएंगे, संयोग भी कितना अच्छा है कि बाढ़ भी तब आई जब दीवाली आने वाली थी।यानी खरीदारी तो होना ही था।निष्कर्षतः आर्थिक कराह भर रही ऑटोमोबाइल उद्योग को ऑक्सीजन मिल गया।

डेंगू तथा अन्य बीमारियों के कारण डॉक्टर साहब की चांदी ही चांदी है।बीमारी है तो डॉक्टर है,डॉक्टर है तो दवा है,दवा है तो दलाल है,दलाल है तो रोगी हलाल है।यानी स्वास्थ्य विभाग पूरा हरकत में आया होता है।
रोड नालों की सफाई होनी है तो ठेकेदार और नेता जी का गठजोड़ भी रंग लाएगी।रंगोलियां बनेंगी,रौशनिया होगी, पटाख़े  फूटेंगे ,दीवाली है भाई! और भी कई प्रकार के फायदे होते है जब इस तरह  से शहर  पानी- पानी होता है,भले ही सरकार या सरकारी तंत्र पानी- पानी हो या न हो!!
एक सबसे बड़ा फायदा तो बताना भूल गया!!
पानी -पानी होने से रोड पर नाव चलती है,और नाव चलती है तो टूटे सड़कों की jerk से आप बच पाते हैं तो एहसास होता है मानो दिवंगत ओमपुरी जी की उबर-खाबड़ गाल के बीच से दायें-बायें होते हुए हेमा जी तक पहुंच गए हों,तो ऐसे में नेताजी के  सपने पूर्ण होता महसूस हो पाता है।
नेताजी पानी में अपनी राजनीति की नौका को बहते- बहाते ,जैसे तैसे राजनीति की बहाव में हाथ से फिसलती कुर्सी को बचाने की कोशिश करते हैं, ये अलग बात है कि राम की कृपा से रामकृपाल जी इस प्रयास में पानी-पानी हो जाते  हैं ।
अपनी बदतमीज़ जुबान को लगाम देता हूँ और सभी पटनावासियों को नफे नुकसान से जल्द बाहर निकल दीवाली की खुशहाली हेतु शुभकामनाएं देता हूँ।
वैसे दीवाली अंक को जरूर पढ़ियेगा,जल्द आप सबके बीच लिखित होगा।

आभार।
बिहार में बाढ़ है नीतिशे कुमार है      गांधीगिरी | Gandhigiri  AUGUST KRANTI |अगस्त क्रांति

Tuesday 1 October 2019

बिहार में बाढ़ है नीतिशे कुमार है

बिहार में बाढ़ है नीतिशे कुमार है

अपनी लेखनी को 'अनुलोम-विलोम 'करवाना हो तो चले आइये बिहार,'दम फूल जाएगा आपका'।Double Engine की सुशासित एवं सुसज्जित सरकार,Double Digit Growth Rate, Double Development, Double Hospital Fecility ,Double Size Road यानि यहाँ सब कुछ Double-Double है।'तमंचे पे डिस्को' गाने को रचने वाले को आंशिक ही सही पर बिहार की याद जरूर आयी होगी क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि ऐसे गाने की कल्पना बिहार को सामने रखे बिना नहीं हो सकती।
क्षमा कीजिये मेरी कलम बाढ़ में लाचार यत्र-तत्र  थोड़ा भटक गई। क्या करूँ!कोई मदद को तैयार नहीं, विचार बाढ़ के पानी में ठिठुर रहा है ,मन सड़क पर तैर रहे नालों की गंदगियों से सना है,शरीर लाचार, बेबस एवं बेसुध निढाल पड़ा है किन्तु नयन प्रथमतल से सड़क पर तैरती मछली को देख कर मृगनयनी हो रहा है।
कहते हैं समय के साथ तक़दीर कभी भी बदल सकती हैं।कितनी इतराती होगी मछलियां आज -आदमी घर में और मैं बाहर! सपरिवार जल की रानी अभी बदहाल पोखर से निकल कर विशाल जलसागर में अटखेलियाँ ले रही होगी।
उपरोक्त सार बिहार की राजधानी पटना की है,बाढ़ में बहता पटना,बेहाल पटना,बदहाल पटना,बीमार पटना,भूखा -प्यासा पटना,मानवीय मूल्यों का मूल्यहीन होता पटना,किस्मत पर रोता पटना,अपमानित होता पटना,प्राकृतिक त्रासदी का भयंकर गवाह देता पटना,शब्द कम पड़ जा रहे हैं  पटना के वर्तमान स्वरूप को वर्णन करने में।
खैर,बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि इतनी सूखी पड़ी है कि मानवीय अश्रु के सैलाब भी इन्हें सींच नहीं पा रही है।'ठीके'कहते हैं नीतीश कुमार-कोई क्या कर सकता है प्राकृतिक आपदा के सामने,परेशान हो रहे होंगे वो अपने विला में,बैठक पे बैठक और  उसपे फिर बैठक,बैठ-बैठ के बैठे लाचार,"ठीके तो हैं नीतीश कुमार"!
पटना एक अव्यवस्थित राजधानी हमेशा से रही है,न सड़क,न ही सड़क के नियम,न नाले औऱ न ही नालों की कोई परिभाषा,कचरा यत्र-तत्र फैला ,शायद इसलिए दुनिया के प्रमुख प्रदूषित शहरों में उस पटना की गिनती आती है जो कभी पाटलिपुत्र की पवित्र धरती हुआ करती थी।
"Smart city "का सपना दिखाने वालों को वास्तविक परिस्थितियों की कोई विशेष चिंता नहीं,"स्वच्छ भारत-स्वच्छ बिहार" का झंडा उनलोगों के हाथों में है जिनमें स्वच्छमन का घोर अभाव है।विकास के दौड़ की आपाधापी में पटना समेत तमाम जिलों की मूलभूत आवश्यकताएं बहुत पीछे छूट गई।
ये सच है कि इन आपदाओं पर किसी का जोर नहीं परंतु 14 साल के सुशासन में एक व्यवस्थित पटना का निर्माण नहीं हो पाया,नाले जाम हो चुके हैं,थोड़ी से बारिश के पानी में नालों का पानी सड़क पर आ जाता है तो ऐसी घनघोर बारिश में शहर की क्या स्थिति हो सकती है उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ये "बाढ़"।गली,मुहल्ले,कॉलोनियां,सड़क,मकान सब डूबे पड़े हैं, 'आम क्या खास क्या' सभी मकान की चारदीवारी से  पानी के निकल जाने का इन्तेजार कर रहे हैं साथ ही टुकुर-टुकुर सरकारी सहयोग की आस लगाये बैठे हैं।अव्यवस्था की ऐसी दशा अगर सुशासन की दस्तूर है तो विकास की दौड़ कैसी होगी ये विचारणीय है।गाड़ियां डूबी पड़ी है,कारोबार ठप पड़ा है या यूं कहूँ कि आर्थिक क्षति और मानवीय मूल्यों का तार-तार होता बिहार असल विकास की बाट जोह रहा है।
जैसा कि हर दुर्घटना के बाद सरकार सबक लेती है और जैसे-जैसे मामला ठंडा होता है तो सरकार भी ठंडा होने लगती है,उम्मीद है कि इस बार ऐसा नही होगा,Election भी है,एक सार्थक कदम उठाया जाएगा ,ऐसी उम्मीद सभी जरूर कर रहे हैं।सिर्फ सरकार के भरोसे रहना एक व्यवस्थित समाज की सोच नहीं हो सकती,समाज निर्माण में भागीदार एक- एक व्यक्ति को आगे आना होगा,आवाज़ बुलंद करनी होगी,संगठित होकर आपसी सहयोग से हर स्तर पर गंदगी,प्रदूषण,नालों की सफाई इत्यादि के लिए सजग होना होगा,गहरी नींद में सोए सरकारी तंत्र को झकझोरना होगा नहीं तो बाढ़ के रूप में आई ये प्राकृतिक त्रासदी महज इशारा है कि अब नहीं संभले तो भविष्य में ऐसी त्रासदी मानवीय संहार का रूप ले सकती है।
बिहार में बाढ़ से आयी बदहाली, जर्जर सरकार और सरकारी तंत्र को आइना दिखाने जैसा है,भावनाओं के अभाव में ही ऐसा हो सकता है कि कोई गलतियों से सीख न ले।
आशा है परिस्थितियां जल्द सुधरेगी और सामान्य जनजीवन दोबारा पटरी पर लौटेगा साथ ही समुचित प्रावधान की कोशिश युद्घस्तर पर होगी ताकि भविष्य में इन आपदाओं के कुप्रभाव को कुशल प्रबंधन से कम से कम किया जा सके।

आभार

Friday 20 September 2019

A letter to Earth- vikram -chandrayan 2


A letter to Earth- vikram -chandrayan 2

Isro-chandrayan 2

isro 

परिचय 

खबरों का राजनितिक विश्लेषण फिर भी थोड़ा आसान है परन्तु साहित्यिक कतिपय सरल नही। राजनीति  भावहीन होती है किन्तु साहित्य का आधार ही भाव है।  साहित्य मुश्किल से मुश्किल विश्लेषण को भी लोमहर्षक एवं आत्मीय कर बहुत ही सरलता से पेश करता है जबकि राजनीति  क्रूरतम स्तर के नए आयाम हर रोज बनाती है। साहित्य की विधा ही कुछ ऐसी है कि  मुद्दा कोई भी हो,विषय कुछ भी हो,जटिलता कैसी  भी हो,समाधान को साहस जरूर दे जाती है। यद्यपि साहित्य   कोई वैज्ञानिक प्रयोग नही करती किन्तु   विचारों  का प्रयोग तो जरूर करती है। वह विचार जिससे आप राजनितिक होते है ,वह विचार जिससे आप सामाजिक होते है ,वह विचार जिससे आप   सांस्कृतिक होते या वो विचार जो आपको वैज्ञानिक बनाती है। जहाँ  जहाँ भाव होगा ,वहाँ  वहाँ  साहित्य होगा। और इसलिए जब वैज्ञानिक जज्बात भावनात्माक  हो जाये तो उसका साहित्यिक विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है। एक ऐसा प्रयोग होता है जो असफल होकर भी सफल हो जाता है ,जो हर हिंदुस्तानी को एक सूत्र में ऐसा पिरोता है  कि लोग अर्धरात्रि  में भी  जग  रहे होते हैं । करोड़ों लोगों  की आस्था  ,विश्वास उससे भी ज्यादा ,पर उद्देश्य सिर्फ एक- CHANDRAYAN-2 । जब अलग अलग जगह से लोग  एक साथ,एक समय ,एक विचार और एक मन से भारतीय होकर विक्रम की सफल अवतरण का गवाह  बन रहे  हों ,तो जरुरी हो जाता है इस वैज्ञानिक प्रयोग का भावनात्मक पक्ष प्रस्तुत किया जाये। क्यूंकि आज के दौर में ऐसा कम देखने को मिलता है कि सारा हिंदुस्तान भावनाओं  के समर में एक हो गया हो ।
 समय के चाल के साथ ,आशा की चाल थोड़ी मद्धम जरूर  हुई है परन्तु चाँद की सतह पर शिथिल पड़ा विक्रम ,पराक्रम का महत्तम  प्रयास कर रहा होगा ,उसकी कमजोर पड़ती  नजरों से भी आशा की  लौ फिर से  प्रखर हो जाने का दम भर रही  होगी। ऐसे में जरुरी है उस सोच को सींच कर जिन्दा रखने का जो विक्रम की आशाओं पर आज नही तो कल जरूर खड़ा होगा। विक्रम  की  भावनाओ   को प्रस्तुत करता ये  लेख महज कल्पना नहीं अपितु विश्वास की ऐसी  डोर  है जो यहाँ भी और वहाँ  भी, बराबर मजबूत है।

A letter to Earth  

Vikram Lander-pragyan

खत विवेचना 

यूँ  तो पिछले कुछ दिनों से चर्चा -ए -आम रहा हूँ ,मैं यहाँ चाँद पर और लोग वहाँ धरती पर मुझे पढ़ रहे होंगे और निष्कर्ष निकालने की कोशिश कर रहे होंगे ,वैज्ञानिक गलतियों का लेखा जोखा हो रहा होगा। मैं  भी पुरजोर कोशिश कर रहा हूँ कि  शब्दतरंगों को जियूँ  ,भावनाओं के  सैलाब को स्वतंत्र एवं निश्छल बहने दूँ ,शब्दों को दिल के करीब लाऊं ताकि भावनाओ के समर में शब्द सैलाब उलझे बिना निर्बाध गतिशील रहे, पर ऐसा हो न सका। मेरे विचार और मेरी रूह,मेरी भावनाओं  को नियंत्रित नहीं कर पा रही है।और इसलिए भाव से भरा मैं  विक्रम विचारशून्य हो गया। मेरा वैज्ञानिक ही नहीं अपितु भावनात्मक सिग्नल भी कमजोर होता चला गया मानो  रूहानी सफर में किसी Hard Landing  का शिकार हो गया। विज्ञान  भी परेशां  हो रहा होगा और कोस रहा होगा अपनी किस्मत को ,एक कसक तो होगी ही उसके भी मन में कि पूरी धरती ,सारा आस्मां,करोड़ो लोगों  का विश्वास और कठिन वैज्ञानिक तप का ही तो परिणाम था कि नवनिर्माण और नवसृजन की आभा लिए एक और जमीं की तलाश में मैं निकल पड़ा था। मैं उस विश्वास  की उड़ान था जिसे चाँद की सतह पर उतरते देखना,सपने सच होने जैसा था ,मैं वो माद्यम था जिसकी दस्तूर  भी चाँद तक थी और दस्तक़ भी चाँद तक ही था। इश्क़ उस चाँद की आभा के बिना अधूरी है जिसका वर्णन कभी चौदहवीं ,तो कभी पूर्णमासी तो कभी चंद्रमुखी ने किया हो।आज मैं  उस चाँद की आगोश में हूँ ,उसे छू रहा हूँ ,बहुत ही करीब से महसूस कर पा  रहा हूँ इस उम्मीद से कि मैं इन भावनाओं  को धरती तक पंहुचा सकूँ  और बता सकूँ  की जिस चाँद की ख़ूबसूरती  और उसकी शीतलता का तुम इतना वर्णन करते हो वो उससे कहीं ज़्यादा  सौंदर्य और विभा लिए है।
प्रज्ञान आतुर है चाँद की जमीन को चूमने के लिये ,मन उसका व्याकुल है चंदा मामा की  छाती पर लोटने -पोटने  के लिये। हो भी क्यूँ  ना !माँ का संदेश  लिए मामा  से मिलने इतनी दूर जो आया है। प्रज्ञान की व्याकुलता देख मैं रुका नहीं ,थका नहीं ,भटका नहीं ,निरंतर चलता रहा उन अनजान रास्तों  पर भी जिसे शुन्य कहते हैं। उस शुन्य में भी विचारशून्य नहीं वरन विचारशील था मैं । थोड़ी चाल मेरी न डगमगाई होती,थोड़ा मिलन का संयम और रख लेता तो तुम्हारे इतने करीब आकर ना  फिसलता। गिरा पड़ा हूँ तुमरे छाती पर ,मन व्याकुल है किसी सन्देश की आस में। सभी परेशां  हो रहे होंगे वहाँ ,आँसुओ  के बूँद में प्रणेता की आँखें  सूज गई होगी ,अग्रज के कंधों  पर सर रख कोई अनुज विलख रहा होगा ,गमगीन होगी वो धरा जिसने मुझे सहेजा,संवारा,पुचकारा कि मैं चाँद की तबियत की सही खबर उन्हें दे सकूँ।
मैं  विक्रम हूँ ,पराक्रम मेरे रोम-रोम में है ,चोटिल जरूर हूँ पर हारा  नहीं ,आंखें जरूर धुँधली  हुई है पर विश्वास की रौशनी अब भी चमक  रही  है।

निष्कर्ष 

सुनो !तुम हारना नहीं ,डटे  रहना ,विक्रम अभी जिन्दा है और अगर मूर्छित भी हुआ तो कोई दूसरा विक्रम जरूर यहाँ पहुंचेगा और मानवीय जज्बात के तारतरंग जरूर स्थापित करेगा।
मैं अधूरा ही सही ,सीमित ही सही पर सबसे जरुरी काम तो कर ही गुजरा -
करोड़ो भारतीय जगे थे ,एक सूत्र में बंधे थे। 
आंखें नम  थीं ,पर विश्वास का धागा अटूट था। 


दर्शनाभिलाषी आप सबका  विश्वासी 
प्रज्ञान के साथ  विक्रम

Saturday 31 August 2019

Assam NRC Draft-2019 -Consolidation and Facts

Assam NRC Draft-2019 

परिचय 
उत्पत्ति के अनेकानेक प्रक्रियाओं से गुजर कर शुन्य में टिकी एक धरा जहाँ  जीवन का वजूद स्थापित हुआ उस ग्रह  का नाम पृथ्वी "EARTH" रखा गया। इस धरा के जीवउत्पत्ति केअनेक सिद्धांत तय किये गए ,विद्वानों के बीच मतान्तर भी रहा पर एक मुद्दा जरूर ऐसा था जिसपर सभी धुरंधरों की एक राय  बनी वो थी अधिकारों का वर्गीकरण और उसका विस्तारीकरण। शुरूआती दिनों में  धरा एक रही होगी ,न कोई महादेश और न ही कोई देश रहा होगा। परन्तु जैसे -जैसे विकास का प्रादुर्भाव होता गया धरा ही नही अपितु नभ,नीर ,विचार ,समाज,संस्कृति ,प्रकृति इत्यादि सबका बंटवारा हो गया। "ये तेरा घर ये मेरा घर" का वैचारिक सिद्धांत इतना प्रबल हो गया कि कर्तव्य कमजोर होता  गया ,अधिकार अवसादग्रस्त हो गया और अनाधिकार शब्द बलवान होता चला गया। शनैः शनैः बात अधिकार से ऊपर उठकर अधिकार हनन तक जा पंहुचा तात्पर्य हक़ की रोटी के साथ-साथ दो-एक रोटी की हकमारी भी अधिकार क्षेत्र का वास्तविक विस्तार माना जाने लगा। दूसरों के अधिकारों का मान मर्दन बलवान होने का प्रमाण होने लगा। और यहीं  से शुरू हुआ उन तमाम हथकंडो का जिससे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच की पतली सी अदृश्य दीवार टूटने लगी थी। परिणामस्वरुप अल्पसंख्यक ,बहुसंख्यक और बहुसंख्यक ,अल्पसंख़्यक हो गए। यह प्रक्रिया जब अप्राकृतिक और असामान्य हो तो उत्कृष्ट मापदंड के अभाव  में लाभ से कहीं ज्यादा हानि पंहुचा रहा होता है।

परिपेक्ष -Assam NRC Draft-2019 

यह प्रक्रिया जब विकराल एवं वीभत्स रूप ले लेता है तो जो परिस्थितिया उभरती है उसे अंग्रेजी में Demographic Change कहते हैं। वैसे तो   Demographic Change नाम की महामारी से हिन्दुतान का कोई भी क्षेत्र अछूता नही है पर सर्वाधिक कुप्रभावित राज्यों में असम -ASSAM  प्रमुख स्थान पर है। राजनैतिक स्वार्थलोलुपता,तुष्टिकरण,लचर शासन प्रणाली ,असंगठित सामाजिक स्वरुप तथा सरल और समावेशी सांस्कृतिक दुर्बलता शायद इतना प्रबल हो गया कि भूखे नंगे परन्तु हिंसक प्रवृति लिए बांग्लादेशी अवैध घुसपैठ कर Infection  की तरह असम के हर संसाधन का इस कदर दोहन करने लगे मानो  उनके पुरखों  की जागीर हो और इस तरह आसामरूपी शरीर को अंदर से खोखला करने लगा।

Assam NRC Draft-2019 

ASSAM -NRC
NRC-ASSAM-2019

आज़ाद हिंदुस्तान के गुलाम राजनैतिक जयचंदों  ने अंग्रेजों  के अंग्रेजी उपहार "फूट  डालो और शासन करो "(Divide and Rule) की नीति  को संभाल  कर ही नहीं रखा बल्कि लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इन बाह्य घुसपैठियों को वो तमाम सुविधाएं उपलब्ध करवाई जो असम के मूल लोगो का जन्मजात अधिकार था। इस Demographic Change ने इतना व्यापक कुप्रभाव डाला की इसका असर सम्पूर्ण देश के राजनैतिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक तथा अन्य क्षेत्रों के मानस पटल पर स्पष्ट दिखने लगा। कहते हैं  जब वक़्त करवट बदलता है ,जब आह अंगड़ाई  लेती है,जब सिसकती ,हकलाती,घिघयाती अँधेरी रात स्वयं घोर अँधेरे का शिकार हो जाती है ,तब कोने से आती एक लौ भी मशाल बन जाती है ,एक चिंगारी भी विस्फोटक रूप  ले लेती है ,एक विचार क्रांति का  रूप ले लेता है और तब  काली घटा छंटने लगती है और एक सुनहरा सूर्योदय इंतजार कर रहा होता है।  
जेठ  की गर्म लू के थपेड़े खा-खाकर बेसुध पड़ा असमिया स्वाभिमान मंद मंद श्वास भरने लगा ,कुठाराघात से सूखी बंद आंखें अब धीरे धीरे आशा -उम्मीद  की  नमीं  लिए आंख  के किसी कोने से रिसने लगा था,ढीली पड़ी विश्वास की नसों में अब आत्मविश्वास तेज रफ़्तार से दौर रहा था। वजूद की रक्षा और भविष्य की सुरक्षा हेतु असमिया फक्कड़पन  बेबाक होने लगा ,सामाजिक जाग्रति आने लगी जिसने स्वार्थी और मदहोश जयचंदों  की नींद ही नही अपितु नींव  भी हिला दी।
शासन बदल गया ,प्रशासन मजबूर हो गया ,लोकतान्त्रिक व्यवस्था हरकत में आने लगी ,सामाजिक क्रांति का ऐसा तानाबाना बुना गया कि  विधायिका,कार्यपालिका से लेकर  न्यायपालिका तक हिल गई। परिणामस्वरूप देश की सर्वोच्च न्यायलय के संरक्षण में Demographic Change  का अवलोकन कर वास्तविक परिपेक्ष के पुनः स्थापन का आदेश दिया गया ।

विश्लेषण -Assam NRC Draft-2019 

बढ़ती जनसख्या और सिमित संसाधनों का तीव्र शोषण किसी भी सभ्य समाज का परिचय नही हो सकता। सरकार  कितनी भी policies  ले आये ,जब तक जनसंख्या control  नही होगा ,विकास की  सार्थकता सिमित ही रह जाएगी। 
असम के परिपेक्ष में जनसख्या का विस्फोट बांग्लादेशी घुसपैठिये  का ऐसा  रूप है जिसने असम के आम जनजीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। दिनानुदिन हिंसा ,मादक पदार्थो की तस्करी ,गौ तस्करी ,नकली नोटों का धंधा,दंगा और न जाने कितने ही गैरकानूनी काम होने लगे । 
प्रश्न तो उठेंगे  आखिर इतने सख्त सुरक्षा होने के बावजूद इतनी भारी संख्या में घुसपैठ कैसे हो गया? ये एक दिन में तो नही हुआ होगा ?खैर आरोप प्रत्यारोप के चक्कर में न पर वास्तविकता से जुड़े तःथ्यों का विश्लेषण जरुरी है। 
पूर्वी बांग्लादेश बनने के काल से घुसपैठ की शुरआत हुई और ये लगातार चलता रहा वोट की राजनीति  के लिए। १९७१ के युद्ध से पहले दमनकारी पाकिस्तानी नीतियों का यह  नतीजा रहा की बहुत से बांग्लादेशी भारत में घुसपैठ कर गए। राजनितिक इच्छाशक्ति के आभाव में इस घुसपैठ ने ऐसी स्थति ला दी की असम के कई जिले ऐसे है जहाँ घुसपैठिये बहुसंख्यक हो गए है। बशीरहाट ,चिरांग ,बोंगईगांव आदि कुछ ऐसे क्षेत्र है जहाँ 70 से 80 फीसदी तक मुस्लिम population  हो गया जबकि 2011 की जनगणना के हिसाब से ३० फीसदी से भी कम यहाँ की अल्पसंख्यक अर्थात मुस्लिम आबादी थी। 
आज जबकि NRC Draft -2019 का final रिपोर्ट आ गया है तो लाजमी है बहुत से नेताओ के पेट में दर्द भी होगा कि 19 लाख के  आसपास जो उनके वोटबैंक थे वो हाथ से निकल जायेंगे। जिन लोगो के नाम इस लिस्ट में नही है वो  Illegal Migrants (Determination by Tribunal) Act, 1983 के तहत Foreigners  Tribunal में खुद के नागरिकता से जुड़े प्रामाणिक कागजात के साथ जा सकते हैं। 
ये सारी  प्रक्रियाएं 120 दिनों के अंदर होना है तो तय मानिये आने वाले दिनों में परिस्थतिया सुलझेंगी  बहुत हद तक तो परिस्थितिया उलझेंगे भी। 

चुनौती -Assam NRC Draft-2019 

19  लाख से ज्यादा लोग विदेशी नागरिक घोषित किये गए हैं ,मतलब साफ़ है इतने लोगों  को  इनके देश वापस भेजना साधारण  बात नही है। अशांति,हिंसा आदि ना  हो इसके लिये  जरुरी कदम के साथ ही सुनियोजित विस्थापन की पूरी तैयारी  भी करनी होगी। 

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न  या चुनौती जो सामने दिख रही है कि कितने घुसपैठिये को बांग्लादेश वापस लेगा? क्यूंकि ये 2 ,4 या 10 का मामला नही है। और अगर लेगा तो किन शर्तो पर ?अगर बांग्लादेश इन्हे लेने से मना  कर देता है तो क्या विकल्प बचते हैं ?

निष्कर्ष -Assam NRC Draft-2019 

सारी  प्रक्रियाओं के तहत जब असम घुसपैठिया मुक्त होगा तो जरूर असम के लोगों  के विकास की रफ़्तार तेज होगी,crime  घटेगा और असम अपने पुराने  पहचान को फिर से जीवंत करेगा। Assam NRC Draft-2019   की ये प्रक्रिया अभी शुरुआत ही समझी जानी चाहिए क्यूंकि बंगाल ,बिहार ,ओड़िसा ,दिल्ली  और बाकि राज्यों में भी भारी घुसपैठ है। स्वार्थ से  ऊपर उठ राजनितिक पार्टियों को एकमत हो पुरे देश में इसे लागू  करने की जरुरत है। देश की भलाई  में ही हम सब की भलाई है। 


Thursday 15 August 2019

गांधीगिरी | Gandhigiri


गांधीगिरी | Gandhigiri

"गांधी" शब्द किसी 'नाम' की प्रामणिकता का वो आधार है जो खास को आम से अलग करता है।यह परिचय है उस महान संस्कृति की  जिसका प्रतिनिधित्व लंगोट,लाठी,और चश्मे वाले एक फ़क़ीर ने किया और "गांधीगिरी" की ऐसी  मिशाल पेश की कि पूरी दुनिया मंत्रमुग्ध हो गयी।यह वही गांधी है जिसने अंग्रेजो को भी गांधीगिरी सीखा दिया और जो अमन और शांति का प्रतीक बन "सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय" को धरातल पर फलीभूत किया ।यह पहचान भी है,अभिमान भी है,संस्कार भी है,सहशीलता भी है,स्वभाव भी है और धर्म भी है तभी तो ग्रंथो में लिखित "अहिंसा परमो धर्म" हमारी गौरवशाली परंपरा का हिस्सा रही है।उपरोक्त बातों का सार निकाला जाए तो गांधी एक शब्द ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा एक 'विचार' है ,एक चिंतन है और एक निश्चल जीवनप्रणाली का आधार स्तंभ है।

मंथन 

वक़्त बदला, सोच बदले, सभ्यताओं का आधुनिकीकरण शुरू हुआ,कदम से कदम मिलाकर चलने वाले दौर बदले और Fast and Furious का जमाना आ गया,संचार के माध्यम विकसित हुए,Social Media क्रान्ति हुई ,विचारो का आदान-प्रदान सुलभ हुआ और इन सबके बीच जो एक बड़ा परिवर्तन हुआ वो है मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक पतन। मुद्दा राजनीतिक है तो राजनीति की ही बात करूंगा परंतु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दरकिनार नहीं किया जा सकता है क्योंकि राजनीति का एक उत्कृष्ट मापदंड है चरित्र और नैतिकता।इन दोनों से फिसले तो राजनीति भी हाथ से फिसलने लगती है।
मोदी Vs गांधी का तुलनात्मक विश्लेषण सर्वथा अनुचित है परंतु गांधीगिरी की वैचारिक प्रसांगिकता को कहीं न कहीं ठेस पहुँची ,कोई आघात  हुआ,जैसे प्रकृति अपना नियम कानून खुद बनाती  ठीक से प्रकार राजनीति भी अपनी नीति और सिद्धान्त खुद तय करती है,राजनीति को भी अपना वजूद बरकरार रखना होता है तभी तो गांधी नाम रखने वाले से ज्यादा गांधीगिरी जीने वाले किसी 'मोदी' का उदय होता है।गांधी के नाम पर दशकों शासन करने वाले शायद गांधीगिरी भूल गए ,शायद वो विचाधारा कहीं पीछे छूट गई  जो राष्ट्रहित की बात करती थी या फिर गुमान हो गया गांधी होने पर और चकाचौंध में जीने वाले "गांधीगिरी की लौ" को सम्हाल कर नहीं रख  सके।दुष्यंत कुमार की कविता बड़ी सटीक होती  है :-
"हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए"।
जब बात देशहित की हो,जब बात समाज की हो और जब बात अवाम की हो तो प्रश्न तो उठेंगे ही कि 353 के बड़े स्कोर को पीछा करने वाली कांग्रेस 55 पर ही धराशाई  क्यों हो गई? प्रश्न तो यह भी उठेंगे एक आल राउंड गांधीगिरी से भरी कांग्रेस जो कभी बीजेपी को 1 का स्कोर भी करने नहीं देती थी आज वो इतना बड़ा स्कोर खड़ा कैसे कर रही है?अटल जी याद आते  हैं :-
हार नहीं मानूँगा ,रार नहीं ठानूँगा ,
काल के कपाल पर लिखता हूँ मिटाता हूँ ,
गीत नया गाता  हूँ। 
दो निष्कर्ष निकाले जा सकते है या तो BJP ने गांधीगिरी को निभाया या कांग्रेस ने गाँधीगरी का त्याग किया या ये भी हो सकता है कि दर्शकदीर्घा में बैठे वो लोग जिन्हें हमेशा गांधीगिरी के नाम पर भ्रमित किया गया आज शायद गांधीगिरी के सही मायने को समंझने लगे हों।मेरी सहमति तीसरे  विचार से है।
वो कांग्रेस जो 60-65 सालों तक हिंदुस्तान के राजनीति कि केन्द्रबिन्दु रही आज किनारे पर भी बड़ी मुश्किल से नज़र आती है।ऐसे में राष्ट्रकवि दिनकर जी का स्मरण होता है:-
सदियों की ठंडी-बुझी राख सुलग उठी ,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह,समय के रथ का घर्घर -नाद सुनो ,
सिंघासन ख़ाली करो की जनता आती है। 

निष्कर्ष 

मुद्दा चाहे न्याय का हो,साम्प्रदायिकता का हो,किसान का हो,विकास का हो,घोटालों का हो,राज्यो का हो,देशनीति की हो,विदेशनीति की हो,370 का हो,ट्रिपल तलाक  हो  या राफेल का हो हर मुद्दे पर  हँस कर या फिर आँख मारकर भारत की संसदीय अस्मिता का उपहास उड़ाने वाले को जनता कब तक बर्दाश्त करती! कब तक बर्दाश करती उन चाटुकारो की नीति को जिसने आम नागरिक के जीवन को हासिये पर धकेल दिया वर्ना ऐसा कौन सा संसाधन नहीं था  कि हिंदुस्तान 60 सालो तक शुद्ध पानी को तरसता रहा,ऐसा कौन पोषण नीति नहीं था कि साल दर साल नौनिहाल  कुपोषण का शिकार होता रहा,ऐसा कौन सा ज्ञान नही था की अज्ञानता चहुओर  डेरा डाली हुई थी,आखिर वो कौन से युद्ध कला नही  थी कि हम 1962 का युद्ध हार गए| चाणक्य,आर्यभट्ट,जगदीश चंद्र बोस ,अशोक,तानसेन,शिवाजी, सी वी रमन न जाने कितने की विधा के पारंगत इस मिट्टी  की पहचान थे फिर भी  हम एक कृतज्ञ राष्ट्र नहीं बन पाये।
'कमी नीति में नहीं नियत में थी',जो आज के दौर में अत्यधिक ही झलक रहा है।परंतु भूलना नहीं चाहिए कि हम सूचना क्रांति के दौर में है,"झूट छुप नही सकता और सच्चाई बहुत दिनों तक दबाई नही  जा सकती"।

घनिष्ठता इटली से भी रखिये पर नमक की कीमत जरूर अदा कीजिये।जनेऊ पहन मंदिर-मंदिर और फिर जनेऊ उतार मस्जिद-मस्जिद से ज्यादा जरूरी है देशहित के विचारों को निर्भीक होकर रखने का,सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत रखने का।इसके लिए जरूरी है कि सोच सही हो।इस धर्मयुद्ध में आज कृष्ण की चेतावनी को अर्जुन समझे और जिम्मेदार बने तो ही जीत होगी नहीं तो कोई नही जीतेगा,सब लोग हारेंगे,इंसानियत हारेगा।
चायवाले को शायद ये बेहतर समझ है,मानवता ,राष्ट्रप्रेम,दृढ़संकल्प से गाँधीगरी को जिया जा सकता है तभी तो हिचक नहीं  होती निर्णय लेने में,तभी तो आशा की  लौ लिए हिंदुस्तान को मोदी के रूप में एक उदयीमान सूर्य दिख रहा है।
                     व्यक्तिगत असहमति जायज  है किन्तु देश से असहमति नही हो सकती

आभार
AUGUST KRANTI |अगस्त क्रांति,सोने की चिड़ियाँ,Blogging,बचपन(भाग१)



Saturday 10 August 2019

AUGUST KRANTI |अगस्त क्रांति

AUGUST KRANTI


"आज़ादी" बहुत कीमती शब्द है साहब!ये शब्द से कहीं ज्यादा वो भावना है जो रह-रह कर अटखेलियां लेती है,इतराती है और जमीं से आसमां तक अपने वजूद होने का एहसास कराती है।निरन्तर कुर्बानियां देनी पड़ती है तब जाकर मन आज़ाद होता है,तन आज़ाद होता है,विचार आज़ाद होता है,कलम आज़ाद होती है,भाव आज़ाद होता है,आशा और उम्मीद आज़ाद होती है,स्वाभिमान आज़ाद होता है अर्थात हर वो प्राण आज़ाद होता है जो जीवंत रहना चाहता है।ऐसी ही एक कहानी है "मदर-ए-वतन" हिंदुस्तान की।
      "मन समर्पित ,तन समर्पित और ये जीवन समर्पित,
         चाहता हूँ देश की धरती,तुझे कुछ और भी दूँ"।
  'यूँ ही नहीं स्याही से लिखे ये शब्द कागज को अमर कर देते हैं
यूँ ही नहीं पुरुषार्थ से भरे ये जज्बात ,वीरता को अमर कर देते हैं'।

15th August

'AUGUST' हिंदुस्तान के इतिहास का वो महीना है जो सावन भी है और बसंती भी है,जिसमें  राम भी है और  शिवभक्ति भी है,जिसमें गंगा भी है और आरती भी है,जिसमें आरम्भ भी है और अंत भी है,जो एक सोच भी है और विचारों का उन्माद भी है,जिसमें त्याग भी है और त्योहार भी है, तभी तो ये हिन्दुतान के स्वर्णाक्षरों का "अगस्त क्रांति" कहलाता  है। इस महीने में आज़ाद हिंदुस्तान का 'मुस्तकविल' माँ भारती के चरणों में नतमस्तक था।
आज़ादी के उपवन में जो फूल महक रहे हैं वो जलियांवाला बाग के लोगों खून से सिंचित है,वो उन महान वीर एवं वीरांगनाओ के लहु का प्रमाण है जिन्होंने इस भूमि को उर्वरा बनाया । ये वो दौर था जब आज़ादी के दीवाने 'बसंती चोला' लिए भारत माँ को आज़ाद करने के लिए मौत की'आँखों में आँखें' डाल "इंक़लाब-जिंदाबाद" के नारों को बुलंद कर रहे थे।
कौन भूल सकता है 24 साल के जतिन्द्रनाथ दास को जिन्होंने लाहौर की जेल में 64 दिन भूख हड़ताल कर अपने प्राणों की आहुति दे दी।कौन भूल सकता है खुदीराम बोस को जिन्हें 18 साल की उम्र में फाँसी दे दी गई।भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को जिन्होंने 8 अप्रैल 1929 को 'Delhi Central Legislative Assembly'में धुंआ बम फेंका और  "इंक़लाब-जिंदाबाद"के नारे लगते हुए बेखौफ खुद की गिरफ्तारी दी। मकसद  बहुत पारदर्शी और स्पष्ट थे-"If the deaf are to hear,the sound has to be very loud".
क्या जवानी थी, क्या रवानी थी कि मौत भी उनलोगों को डरा न सका और" मोहे रंग दे बसंती चोला" गाते हुए 23 मार्च 1931 की सुबह भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने हँसते हुए फाँसी के फंदों को गले लगा लिया मानो कोई स्वर्णाभूषण हो,मानो कोई श्रृंगार हो,मानो कोई अर्पण हो,मानो कोई तर्पण हो,जो समर्पित थी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी माँ भारती को आज़ाद करने को।
"मेरा नाम आज़ाद है,पिता का नाम स्वतंत्रता है और पता जेल है"यह परिचय ही  काफी था अंग्रेजी हुकूमत की नसें ढीली कर देने वाले बहुरूपिया चंद्रशेखर आज़ाद की।"तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा",किसी चिंगारी से कम नहीं जिसने लाखों युवाओं को चलता फिरता विचारशील बारूद के ढेर में बदल दिया,ऐसी थी आज़ाद खयाल की बेबाकी और ओज।झांसी की रानी ,मंगल पांडेय,बाल गंगाधर तिलक,वीर सावरकर, तात्या टोपे तथा ऐसे कितने ही भारत माँ के लाल थे जिन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया।उस माँ,उस पिता ,उस बहन,उस अर्धांगिनी को भी सलाम जिन्होंने निजस्वार्थ त्याग अपने  बेटे ,अपने भाई और अपने पति को भारत माँ के चरणों में समर्पित कर दिया।
" धन्य है वो धरा जिसका सपूत वतन पे मरा, धन्य है वो     धरा, धन्य है वो तिरंगा,धन्य है वो प्रसूता माता,
   कतरा-कतरा ख़ून से जहाँ माँ का कर्ज चुकाया जाता"।
कुछ कटु सत्य कभी किसी हिंदुस्तानी को नहीं भूलना चाहिए,क्योंकि जो देश अपने बलिदानियों,क्रांतिकारियों का सम्मान नहीं करता उसका पतन सुनिश्चित है।आज़ादी तो 21 Oct 1943 को ही मिल जाती जब "आज़ाद हिंद फौज "के नायक सुभाष चंद्र बोस ने पूरे नार्थ ईस्ट को अपने कब्जे में ले लिया था और उसे 'आज़ाद' घोषित ही नहीं किया अपितु बैंक खोले,करेंसी जारी की।परंतु ऐसा क्या हो गया कि 1947 आते आते "नेता जी" गायब हो गए,प्लेन Crash हो गया? प्रश्न अभी भी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है।
पर एक बात तो सच है कि कुछ कुंठित विचारों ने अंग्रेजी नमक इतना खाया था कि भारत माँ के स्वतंत्रता के मिठास को हल्का कर गया।
               "दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल,
                साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल"।
कवि प्रदीप द्वारा रचित और लता जी की सुरीली आवाज इसे बेहद कर्णप्रिय बनाती है ,पर इस गाने की भावनाओं से मेरी आंशिक सहमति है। 'खडग बिना ढाल' के आज़ादी नहीं मिलती और 'शक्ति' के बिना सम्मान नहीं मिलता।
     "क्षमा शोभती उस भुजंग को,जिसके पास गरल हो,
     उसको क्या जो दंतहीन,विषरहित ,विनीत सरल हो"।

Independence

खैर,आज़ादी के जश्न में वो त्याग,वो समपर्ण,वो वीरता ,वो शौर्य,वो पुरुषार्थ हर हिंदुस्तानी को याद रखना चाहिए और ध्यान रखना चाहिये कि ये आज़ादी निरंतर हमारे वीर महापुरुषों,हमारे वीर जवानों के त्याग का परिणाम है।
सभी को स्वतंत्रता दिवस ही ढेर सारी शुभकामनाएं।
   "जो भरा नहीं है भावों से,जिसमे बहती रसधार नहीं,
   हृदय नहीं वो पत्थर है , जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं"।
बचपन(भाग१) बचपन(भाग-२)

जय हिन्द ,
वन्देमातरम   

Wednesday 7 August 2019

स्वराज

वैसे तो मेरी अनुभहीनता मेरी लेखनी के रास्ते का रोड़ा हमेशा बनती है पर पिछले 4-5 दिनों से ये किसी ऊंचे टीले से कम नहीं,जहाँ मेरी भावनाएं ,मेरे विचार उस ऊंचाई के सामने बौना साबित हो रहा।सामान्यतः मैं एक कॉलम कुछ घंटों के मेहनत के बाद लिख लेता हूँ पर आज चौथा दिन है जब मैं वाक्य के पांचवे पूर्णविराम से आगे  लिखने में कठनाई महसूस कर रहा हूँ।बचपन से जिस विषय पर  निबंध लिखता आया,भाषण देता आया उस 15 अगस्त पर आज लिखना मेरे लिए किसी भावनात्मक गुलामी से कम नहीं जहाँ मेरे शब्द मेरे विचारों का साथ नहीं दे रही।
"Freedom at Midnight", "Gandhi or boss " और  कुछ अन्य आलेख पढ़ अपनी आज़ाद लेखनी को धार देने की पूरी कोशिश कर रहा था।लेकिन पिछले दो दिनों से नरेंद्र मोदी जी और आज "राजनीति की सुषमा" जी ने मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।
#15 August,#Article 370 और आज #सुषमा जी का देहावसान,समझना कतिपय कठिन नहीं कि मेरे लिए ये कितना असमंजस भरा वक़्त है।क्या लिखूं,कहाँ से शुरू करुँ और कहा अंत करूँ कुछ नहीं समझ आ रहा।काफ़ी जद्दोजेहद के बाद निर्णय लिया कि आज सुषमा के "शर्मा से स्वराज" बनने की कहानी लिखूँ।
#सफल बचपन #सफल ncc cadet#सफल शिक्षा #सफल वकील #सफल प्रेम विवाह,#सफल गृहणी#सफल पत्नी#सफल माँ# सफल सांस्कृतिक पहचान#सफल प्रथम BJP की महिला प्रवक्ता#सफल मुख्यमंत्री#सफल विदेश मंत्री और इन सबसे ऊपर एक प्रखर वक्ता और एक सफल इंसान शायद कम पड़ जाए "स्वराज" को वर्णन करने के लिए।
स्वराज कॉल से शादी कर सुषमा शर्मा का स्वराज बन जाना और फिर माथे में सिंदूर,गले मे मंगसलसूत्र और भारतीय परिधान ,कितनी गौरवान्वित होती होगी भारतीय संस्कृति।
राजनीति की ऐसा कोई कला नहीं जिसे सुषमा जी ने  गढ़ा नहीं ,शायद इसलिए ही तो विपक्षी भी उनके कायल थे।
कौन भूल सकता है संयुक्त राष्ट्र में उनका अमिट भाषण जहाँ उन्होंने हिंदी का सर ऊंचा ही नहीं किया अपितु पाकिस्तान की धज्जियां उड़ा दी।भारतीय विदेशनीति को एक अलग ऊंचाई दे भारत की विश्वप्रतिष्ठा को नया मुकाम दे गईं 'स्वराज'।महिला सशक्तिकरण का एक नायाब उदारण थी 'स्वराज'।
खैर,राजनीति के सुषमा का चले जाना जैसे भारतीय राजनीति के प्राकृतिक सौंदर्य का चले जाने जैसा है। भारतीय राजनीति का ये खालीपन शायद ही पूर्ण हो।जो भी हो एक बार फिर ये बात सच हो गई कि अच्छे लोगो की आयु कम होती है शायद भगवान को उनकी ज्यादा जरूरत महसूस होती होगी।
आज़ादी की बात जल्द करूँगा फिलहाल अंतर्मन से स्वराज जी को "श्रद्धांजलि"।
            ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
            उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥
आभार।

Saturday 3 August 2019

Blogging

हिंदी का श्रृंगार और उसका आलिंगन हाल के दिनों तक मेरे लिए सिर्फ उपहास का विषय था।सोचता था आज के इस आपा-धापी और खचाखच भरी  भीड़-भाड़ में कहीं मेरी  हिंदी का मान-मर्दन न हो जाये,कहीं वो कथित 'Mob Lynching' का शिकार न हो जाये। Software और Western Lifestyle के इस दौर में कहीं मेरी हिंदी किसी Window XP की तरह Out of Dated न हो जाये ,साथ ही साथ सादगी और शालीनता की पहचान हम सब की हिंदी किसी Jeans -Top और मटक-मटक कर चलने वाली 'English-Winglish' के सामने जलील न हो जाये। इस डर ने मेरी शब्दों,भावनाओं को कैद एवं कलम को अर्थहीन बना दिया था। यह सच भी है कि आज के दौर में वास्तविकता से परे हिंदी की प्रामाणिकता से कुठाराघात किया गया। खैर,सच्चाई जो भी हो देश आजाद है, सो कलम को भी उतनी ही स्वतंत्रता है।
हिंदी के बड़े-बड़े धुरंधरों को जब पढ़ता हूँ तो हँसी,खुशी,गम,आंसू,विचारशून्य,विचारशील इत्यादि जैसे अनेकानेक  आव-भाव   क्रमशः शब्दों की गतिशीलता  के हिसाब से बदल रहे होते हैं। अतः इंसान की भावनाओ को झकझोर  देनेवाली ताक़त लिये इन शब्दों से दो-एक होने की इच्छा मेरी भी जागने लगी।
कहते हैं लेखक "God Gifted"होते हैं , 'Inbulit Software' की तरह और इसलिए 'Unique' होते हैं,मैं भी इस विचार से 100 फीसदी सहमत हूँ। तब मन में एक कसक रह जाती है और यकायक प्रश्न आ जाता है कि जो 'God Gifted' नहीं हैं,जिनकी हिंदी ज्ञान अधूरी है, जो थोड़ी बहुत ताकझांक, जुगाड़ से Pirated या Duplicate Software होकर हिंदीरूपी 'Operating System' में Installed हो जाते हैं, उनकी भी तो अपनी अलग जगह है,आखिर सब लोग Original Version ही नहीं खोजते हैं, Pirated का भी बहुत बड़ा बाज़ार है।
यह सोचकर मैंने हिंदी में लिखने का Risk उठाया,डर है कि हिंदी के इस हरे भरे मैदान पर 'Hit Wicket' न हो जाऊं! फिर हिम्मत जगती है कि Crease पर रहना या आउट हो जाना तो  खेल का हिस्सा है,जीत हर हाल में मेरी ही होनी है, क्योंकि सफलता या असफलता दोनो ही Case में आप कुछ न कुछ जरूर सीखते हैं।
फिर  मिला इंटेरनेट की दुनिया का ऐसा Plateform जहाँ कोई Reservation नहीं था,जहाँ कोई जातीय रंजिश नहीं थी,जहाँ कोई धार्मिक विभाजन नहीं था,जहाँ आजादी थी, अपने विचारों एवं भावनाओ को पंख देने का और ऊंची उड़ान भरने का,जिसे उनकी भाषा में "Blogging"कहते हैं।
किसी ने कहा टॉपिक Select Karo फिर लिखो,किसी ने कहा Lifestyle पर लिखो,अनानेक Suggestions से गुजरता हुआ में' किंकर्तव्यविमूढ़'हो गया जैसे कोई Computer 'Hang' हो जाता है।
मेरी भावनाएं मुझे अशांत कर रही थीं ,ऐसा क्या लिखूं की वो लोगो को पसंद आ जाये,लोग मेरे Blogs को पढें,अच्छे-अच्छे Comments मिले और मेरी लेखिनी  धूप और बारिश के बीच आसमान में  किसी "सतरंगी इंद्रधनुष"की तरह भव्य रुप ले।
इन सब विचारों के बीच मैं खुद को भावहीन समझने लगा,महसूस हुआ कि जब मैं अपने लेखनी से खुद को खुश नहीं कर सकता तो दूसरों को क्या खुश करूँगा।और इसलिए मेरी लेखनी में निरंतरता बनी रहे इसके  लिए जरूर यह है कि मैं वो लिखू जो मुझे पसंद है,जिसे मैं शब्दों के माध्यम से 'जी' सकूँ, जो मुझे नैसर्गिक आत्मबल दे।
मेरी भावनाओं से सहमति भी होगी और असहमति भी, क्योंकि जीवन का सिर्फ एक पक्ष नहीं हो सकता, फिर भी आने वाले दिनों में हर उस पहलू को छूने का प्रयास करूंगा जिसमें मेरी जीत हो या हार,  "इंसानी जज्बात,इंसानियत,पशु-पक्षी,धरा और इन सबसे ऊपर "हिंदी" की जीत होनी चाहिये।इसमें अगर बूँद भर भी योगदान कर पाया तो मेरी यह यात्रा सफल हो जाएगी।

"कभी भाव लिखता हूँ, कभी जज्बात लिखता हूँ,
कभी जमीं तो कभी आसमां लिखता हूँ।
इस छोर से उस छोर तक ,इस ओर से उस ओर तक,
निर्बाध लिखता हूँ,बेपरवाह लिखता हूँ,जैसा भी लिखता हूँ ,हर वक़्त बेहिसाब लिखता हूँ"।

आभार।

Wednesday 31 July 2019

Triple -T

समय के निर्बाध गतिशीलता के बीच मनुष्य असंगठित से संगठित,अज्ञान से ज्ञान,विचारशून्य से विचारशील ,असभ्यता से सभ्यता की ओर प्रखर होकर अग्रसित होने लगा।
कहते है जब 'अल्पविकसित'से 'विकसित'होने की राह पर होते हैं तो "विकासशील"नाम का सूर्य बहुत तेज चमकता है और इसी कारण बात उस दौर की है जब समाज अपना एक संगठित आकार ले रहा था।मानव सभ्यता के आरंभ से लेकर वर्तमान समय तक कई सकारात्मक बदलाव आए ,पर जैसे सुख और दुख जीवनरूपी नदी के दो किनारे है ठीक उसी प्रकार समाज में अच्छाइयों के साथ-साथ बुराइयों का भी  समानांतर प्रादुर्भाव हुआ।
1800 ई के आसपास सती प्रथा ने सामाजिक मनःस्थिति ही बदल दी किन्तु 1829 ई में ब्रम्ह समाज के संथापक श्री राजाराममोहन राय के अथक प्रयास से इस कुरीति को खत्म कर दिया गया।इसी तरह कितने ही सामाजिक कलंक को समय दर समय धोया गया।कालांतर में जब "विकास"तेज दौड़ने लगा तो विकासशील समाज अपनी मानसिक अपंगता से बाहर निकलने की पुरजोर कोशिश करने लगा।
जिसका वर्तमान स्वरूप भी देखने को मिलता है।धार्मिक आडम्बर से ऊपर उठकर जब "Tripal-T"यानी तीन तलाक पे आवाज बुलंद हुई तो न जाने कितने ही मुस्लिम महिलाएं अचानक से खुद को सशक्त महसूस करने लगी।
ये कुछ ऐसा ही है जैसा मृतप्राय शरीर को सांसो की मद्धम डोर मिल जाना।आज के Technology के दौर में भी ऐसी प्रथाएं अपना जड़ जमाये रही और विडंबना देखिए कि इसके समर्थन करने वालो की भी संख्या कम नहीं है।
राजनीति जब 'स्वार्थनीति' बन जाये तो समाज ऐसे ही विध्वंस से गुजरता है और व्यक्ति विशेष ही नहीं वरण पूरा का पूरा समाज शोषित होता है।
भारत सरकार के इस सकारात्मक पहल और विपक्ष के असफल प्रयास ने मिलकर भारतीय संसद के इतिहास में एक और 'सती प्रथा'को दफन कर नए समाज की नींव को उर्वरा कर  मजबूत करने का एक और सफल प्रयास किया है।
आशा और उम्मीद ही मानव मात्र का सम्पूर्ण  आधार है जिसके दम पर ही लाखो साल से ये धरा जीवंत है।
आशा है ऐसे ही समाज 'Social Pruifier' से गुजर कर Pure और Transparent सोच का उदाहरण प्रस्तुत करता रहेगा जिससे सामाजिक स्वास्थ्य उत्तरोत्तर प्रगाढ़ बना रहे।

Monday 29 July 2019

सोने की चिड़ियाँ

इतिहास के पन्नो को उलटेंगे-पलटेंगे तो अनायास ही कई प्रकार के विचारों का काल्पनिक चित्र मानसपटल पर उभरने लगता है।मजबूत तंत्र,शक्तिशाली एवं सुसंगठित सेना तथा कुशल सामाजिक ,सांस्कृतिक और रणनीति का बेजोड़ समिश्रण था उस समय का राजतंत्र।तंत्र चलाने का ताना-बाना  कुशल कारीगरी का एक ऐसा उदाहरण था जिसकी बुनाई  व्यक्ति विशेष न होकर समाज विशेष होती थी।सिंधु घाटी सभ्यता इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
बात उन दिनों की है जब हिंदुस्तान "सोने की चिड़ियाँ" हुआ करती थी।साम्रज्य दिनानुदिन चौतरफा अपने परिधि को विस्तारित कर रहा थी।भारतीय राजाओ का परिसीमन विस्तार वहां के लोगो को गुलाम बनाने का न होकर उन्हें अपने राज्य के नागरिक के समान का दर्जा देना होता था।शायद इसलिए महान अशोक निरंतर राज्यविस्तार भी करते रहे और शासन प्रशासन भी निर्बाध चलती रही।
सुना भी है,पढ़ा भी है और देख भी पा रहा हूँ,समय के साथ ये सारी दुनिया भी गतिशील है,कालचक्र चल रहा है साथ ही साथ मानव समाज भी गतिशील है ,नित दिन विकासशील से विकसित होने को अग्रसित है।परन्तु हिंदुस्तान को जरा समझने की कोशिश करता हूँ तो मेरे सारे तर्क कुतर्क हो जाते है लिहाजा इस निष्कर्ष पे पहुचता हूँ कि दुनिया की एक मात्र इतिहास जो विकसित से अविकसित की ओर बढ़ा, वो हमारा हिन्दुस्तांन है।
"सोने की चिड़ियाँ" ने इतना लंबा सफर तय कर लिया कि हिंदुस्तान कब पीछे छूट गया उसे भी पता नहीं चल पाया।
               विश्लेषण के तालाब में जरा सा गोता लगाएंगे तो शासन  के डूब जाने या उबरने का आभास तो हो ही जाता है, साथ ही साथ  यह समझ पाना भी आसान हो जाता है कि परिवार चलना हो या साम्राज्य,दोनो के मूल principle एक ही है।किसी भी परिवार के पतन की शुरुआत तब होती है जब घर का प्रधान दिशाहीन हो जाये ठीक उसी प्रकार किसी देश या साम्राज्य का पतन तब शुरू होता है जब राजा दिशाहीन हो जाये।
कभी कभी आप ऐसे गलती कर देते है जिसके कारण सम्पूर्ण आने वाली पीढ़ी प्रभावित होती है।विजेता अशोक भी इससे अछूते नहीं रह पाए और सुख, शांति और अहिंसा को समाज मे बनाये रखने वाले सबसे बड़े अस्त्र "हिंसा" को छोड़ दिया।
जब शासक ही कमजोर हो जाये तो उस राज्य का विघटन निश्चित है,यही हुआ भी और एक विशाल किला ताश के पत्तों की तरह ढहने लगा।दक्षिण में श्रीलंका से लेकर उत्तर में यूनान और न जानें कितने प्रान्त हिंदुस्तान की विजय गाथा का प्रमाण था सब एक-एक कर टूटते गए और पारिणाम स्वरूप भारत माता के अखंड रूप खंड-खंड और  विकृत होकर आज हमलोगों के सामने है।
हम ऐसे देश के वासी है जहाँ खून के बदले खून की भावना नहीं होती ,परंतु सामने दुश्मन खड़ा हो युद्ध को तब आप उससे शांति की बात नहीं कर सकते।युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है।
शब्दो को विराम दूं इससे पहले निष्कर्ष से थोड़ा पहले की बात   यह है कि दुनिया शांति अहिंसा और भाईचारे से तब चलती है जब आप अशांति ,हिंसा और द्वेष का शस्त्र चलाना जानते हों।
निष्कर्ष अगले अंक में कुछ विशेष तथ्यों के साथ लेकर आऊंगा।
आभार


Sunday 21 July 2019

बचपन(भाग-२)

घुटनों के बल लुढकते-2 हम कब कैसे अपने पैरों पे खड़े होकर चलने लगते है ,ये बेहतर समझ तब आने लगता है ,जब हम स्कूल भेजे जाने लगते है। किसी मानसिक विरह की वेदना से कम नहीं होता स्कूल जाना वो भी तब जब स्कूल के प्रथम दिन ही प्रार्थना सभा में भरी भीड़ के बीच गुरु द्वारा  आपके गाल पर जोरदार तमाचा welcome स्वरूप मिला हो।उस शारीरिक चोट से  कहीं ज्यादा वो मानसिक पीड़ा थी जो कि भरी महफ़िल में सारेआम इज्जत जाने जैसा था।
हा!हा!हा!प्रथम स्कूल ,प्रथम दिन,प्रातःकाल,क्या शानदार स्वागत था और उसपे जरा सोचिए!स्कूल से घर आते ही सब लोग खुश होकर पूछते -कैसा रहा स्कूल का पहला दिन?
इस प्रश्नोत्तर के भावनाओं को शब्दों में बयां कर देना बईमानी होगी फिर भी कम शब्दों में 'बहुत अच्छा रहा' कह कर बच  निकलने की कोशिश  करता और हद तो तब हो जाती जब कोई मेरे एकांतवास को तोड़कर ,आकर बोले बहुत मजा आया होगा स्कूल में।।

यहीं से शुरु होती स्कूल न जाने के बहाने का दौर, जो दो-एक बार तो काम कर  जाता है पर बार बार आप अपना पेटदर्द नहीं करा सकते,तो स्कूल जाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है।शुरूआती दिनों में  पढ़ाई में मेरा मन कभी नहीं लगता था,मेरी पढ़ाई By Force होती थी Not By Choice और इसलिए जब कभी choice का ऑप्शन मिला तो हमने उसका जी भर गलत  फायदा उठाया।।

याद आती  है जब Choice के कारण मैंने 'अ' के बाद 'आ' सीखने में 5 दिन लगा दिए पर जब Force लगा तो 10 min में ही सीख  गया। Present Tense, Past Tense ,Future Tense ,मेरे बाल जीवन का बहुत बड़ा Tension बन गया था।दादा जी Chemistry के प्रोफेसर थे,डर के साये में हर झण हुआ करता कि कहीं उनसे आँखें चार न हो जाये और विशेष ज्ञान यानी विज्ञान के प्रश्नों के बौछार से मेरा अल्पज्ञान लहूलुहान  न हो जाये,उनसे बचते बचते अपने चाचाश्री नहीं तो कोई और,यानी कि मेरी स्थिति ऐसे थी जैसे आप बारिश में अपने कपड़े को कीचड़ से बचाने की कोशिश में फिसल जाते हो और कीचड़मय हो जाते हो।।

छात्रों का शैक्षणिक वर्गीकरण सामन्यतः 3 प्रकार के होते हैं-
1)भुस्कोल-poor. 2)ठीक -ठाक-average.3)तेज-Brilliant.
उन दिनों मुझे आप 'ठीक-ठाक' से 'तेज' के बीच की श्रेणी  में जहाँ भी रख देते Fit बैठ जाता और इसलिए कभी भी कक्षा में प्रथम स्थान नहीं ला पाया।हर बार Class में First होते होते जरा से अंक से फिसल जाता,और फिर शुरू होता घर में  विश्लेषण का दौर। माँ -पापा के नोक-झोंक का Side effect रह-रह कर मुझपे पड़ता और में निरीह प्राणी स्वरूप ,अश्रुधार में डूबा किसी अतिथि के आ जाने का इन्तेजार करता रहता ताकि मेरे ऊपर का Side effect कम हो और इसलिए मैं ""मार कम बपरहेत ज्यादा" की कहावत को सही करने हेतु कोई कसर नहीं छोड़ता।'अगली बार अच्छे से पढ़ना ' सुनने के साथ ही सब ठीक हो जाता ,'अगली बार'तो कभी नहीं आ पाया खैर उस समय की पिटाई से जरूर बच जाता।
और फिर मेरी पढ़ाई के विश्लेषण का दौर कई दिनों तक चलता रहता और फिर एक बड़ी रोचक उदारहरण किसी ने प्रस्तुत किया,जरा गौर से सुनियेगा-"जिस तरह सत्ता की कुर्सी मिलते ही नेताजी कभी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते ठीक उसी प्रकार एक बार अगर 'ऋषि' First आ गया तो वो कभी  भी Second होना नहीं चाहेगा"और प्राइवेट स्कूल से बेहतर सरकारी ही है जहाँ सुविधाये कम है, इसलिए बच्चे मेहनत करते है।बात में दम था सो मेरा नामांकन सरकारी स्कूल में करा  दिया गया।
आज़ादी के इतने साल बाद भी जिनके सर पे छत न हो,पीने का स्वच्छ पानी नसीब न हो,खाने को अन्न न हो,भयंकर कुपोषण का शिकार हो,फटे shirt से हड्डियां गिना जाए और डोराडोर के भरोसे पैंट लटका कर अपनी इज्जत बचाने वाला सरकारी स्कूल के छात्र भला मुझे क्या हरा पायेगा, बालमन ही सही पर मैं बार बार खुश होता।मैं अतिविश्वास  में इतना सराबोर हो गया कि खरगोश की तरह  कछुए को कम आंककर विद्वता के भ्रमित निद्रा में कब सो गया इसकी भनक तब लगी जब कछुआ मुझसे पहले मंजिल पहुच चुका था।मैं फिर से First नहीं आ पाया।
इस घटना ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और आत्मग्लानि में इस तरह डूबने लगा जैसे गले मे कोई ठोस गीला गोलाकार अटक रहा हो।
वो कहते है ना"जब जागा तभी सवेरा",इस अंधेरी सोच का घना कोहरा छटने वाला था और एक नई सुबह मेरा इन्तेजार कर रही थी।
Continue.....
आभार।

Saturday 20 July 2019

बचपन(भाग१)

बचपन कितनी शीतलता और चंचलता ली होती हैं,इसका एहसास तब होता है,जब किसी नन्हें  को नज़रो के सामने पल्लवित होता देखते है।
उस नन्ही जान में खुद को महसूस करते और मन मद्धम मद्धम  गुनगुनाने लगता 'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन 'और डूब जाते है उस दुनिया मे,
जब आम के पेड़ों की एक टिकोला पाने को दिन-दिन भर बगीचे में लगे रहते थे,जब बसंत में कोयल से कुहू कुहू की तान मिलाया करते थे और यह दौर तब तक चलता  जब तक माँ के थपेड़े न पर जाएं,पतंग उड़ाने को पैर में काँटो की परवाह किसे थी,मन पूरी तरह पतंगा होता था।
वो पेंसिल,वो स्लेट और फिर उसपे अपनी प्रतिभा दिखाना,अंत मे उसे भीगे कपड़े से पोछ देना,हो गयी पढ़ाई,कितना पढ़ते थे उन दिनों,जब आंगन में क्रिकेट की मैच हुआ करता था और 1लन(run),2 लन 6 लन बनाकर सपनो के तेंदुलकर हुआ करते थे।
हर शाम किसी ताजी सुबह से कम होती थी क्या!चंदा मामा की शीतलता आंगन में लोटने-पोटने को मजबूर कर देती,वो चाँद में बैठी बूढ़ी औरत कितना सुकून देती थी,घूम घूम कर रोटी उस पे नमक और तेल का 'रोल'शायद आज के किसी भी वेग रोल से सौ टका बेहतर था।
वो डमरू बजा कर बर्फ की icecream वाले का गलियो में घूमना,थोड़े से चावल के बदले या मक्कई के भुट्टे बदले लाल,पिला नीला बर्फ के मजे लेना किसी स्वर्गानुभव से कम था क्या।
मन गुदगुदा जाता है याद कर जब स्कूल के पेड़ की छांव में जमीन पर बोरे लिए बैठते थे और पूरी दुनिया की कहानियां रची जाती थीं,पढ़ाई की फिकर क्या,नज़र तो दूसरे के लंच बॉक्स पे हुआ करता था,खुद का अच्छा से अच्छा लंच भी दूसरे मित्र के लंच के सामने कम स्वादिष्ट लगता था,तभी तो अपने लंच का अंगूर,सेब,अमरूद,आदि दूसरे सहपाठी के "सत्तू के लड्डू" से बदल लिया करते थे।
पानी की बोतल लिए कोई परदेसी कभी कभार हमारी गलियो में मिलता था तो धिमि- धिमी मुस्कान छूटती थी और खुद को आश्चर्यचकित और धनवान दोनो समझता था कि पानी तो हम कही भी टोटी में मुह लगाकर पी लेते है,पता नही था यही बोतलबंद" जल ही जीवन " मेरी प्यासी आत्मा को तृप्त करेगी।
खैर ,वक़्त अपना रूप बदल लें पर ये यादें  अभी भी एकदम ताजी है,मानो अभी-अभी मूंग के फुले दाने अंकुरित हुए हो।
सादगी , सरलता,निश्चल एवं निर्दोष ये सारी गुण बचपन मे ही हो सकते है,
वापस तो नहीं ला सकता पर अपने शब्दों से इसे आपलोगो के बीच रखकर बचपन को फिर से जीवंत करने की कोशिश करता रहूंगा।
आभार।