Wednesday 31 July 2019

Triple -T

समय के निर्बाध गतिशीलता के बीच मनुष्य असंगठित से संगठित,अज्ञान से ज्ञान,विचारशून्य से विचारशील ,असभ्यता से सभ्यता की ओर प्रखर होकर अग्रसित होने लगा।
कहते है जब 'अल्पविकसित'से 'विकसित'होने की राह पर होते हैं तो "विकासशील"नाम का सूर्य बहुत तेज चमकता है और इसी कारण बात उस दौर की है जब समाज अपना एक संगठित आकार ले रहा था।मानव सभ्यता के आरंभ से लेकर वर्तमान समय तक कई सकारात्मक बदलाव आए ,पर जैसे सुख और दुख जीवनरूपी नदी के दो किनारे है ठीक उसी प्रकार समाज में अच्छाइयों के साथ-साथ बुराइयों का भी  समानांतर प्रादुर्भाव हुआ।
1800 ई के आसपास सती प्रथा ने सामाजिक मनःस्थिति ही बदल दी किन्तु 1829 ई में ब्रम्ह समाज के संथापक श्री राजाराममोहन राय के अथक प्रयास से इस कुरीति को खत्म कर दिया गया।इसी तरह कितने ही सामाजिक कलंक को समय दर समय धोया गया।कालांतर में जब "विकास"तेज दौड़ने लगा तो विकासशील समाज अपनी मानसिक अपंगता से बाहर निकलने की पुरजोर कोशिश करने लगा।
जिसका वर्तमान स्वरूप भी देखने को मिलता है।धार्मिक आडम्बर से ऊपर उठकर जब "Tripal-T"यानी तीन तलाक पे आवाज बुलंद हुई तो न जाने कितने ही मुस्लिम महिलाएं अचानक से खुद को सशक्त महसूस करने लगी।
ये कुछ ऐसा ही है जैसा मृतप्राय शरीर को सांसो की मद्धम डोर मिल जाना।आज के Technology के दौर में भी ऐसी प्रथाएं अपना जड़ जमाये रही और विडंबना देखिए कि इसके समर्थन करने वालो की भी संख्या कम नहीं है।
राजनीति जब 'स्वार्थनीति' बन जाये तो समाज ऐसे ही विध्वंस से गुजरता है और व्यक्ति विशेष ही नहीं वरण पूरा का पूरा समाज शोषित होता है।
भारत सरकार के इस सकारात्मक पहल और विपक्ष के असफल प्रयास ने मिलकर भारतीय संसद के इतिहास में एक और 'सती प्रथा'को दफन कर नए समाज की नींव को उर्वरा कर  मजबूत करने का एक और सफल प्रयास किया है।
आशा और उम्मीद ही मानव मात्र का सम्पूर्ण  आधार है जिसके दम पर ही लाखो साल से ये धरा जीवंत है।
आशा है ऐसे ही समाज 'Social Pruifier' से गुजर कर Pure और Transparent सोच का उदाहरण प्रस्तुत करता रहेगा जिससे सामाजिक स्वास्थ्य उत्तरोत्तर प्रगाढ़ बना रहे।

Monday 29 July 2019

सोने की चिड़ियाँ

इतिहास के पन्नो को उलटेंगे-पलटेंगे तो अनायास ही कई प्रकार के विचारों का काल्पनिक चित्र मानसपटल पर उभरने लगता है।मजबूत तंत्र,शक्तिशाली एवं सुसंगठित सेना तथा कुशल सामाजिक ,सांस्कृतिक और रणनीति का बेजोड़ समिश्रण था उस समय का राजतंत्र।तंत्र चलाने का ताना-बाना  कुशल कारीगरी का एक ऐसा उदाहरण था जिसकी बुनाई  व्यक्ति विशेष न होकर समाज विशेष होती थी।सिंधु घाटी सभ्यता इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
बात उन दिनों की है जब हिंदुस्तान "सोने की चिड़ियाँ" हुआ करती थी।साम्रज्य दिनानुदिन चौतरफा अपने परिधि को विस्तारित कर रहा थी।भारतीय राजाओ का परिसीमन विस्तार वहां के लोगो को गुलाम बनाने का न होकर उन्हें अपने राज्य के नागरिक के समान का दर्जा देना होता था।शायद इसलिए महान अशोक निरंतर राज्यविस्तार भी करते रहे और शासन प्रशासन भी निर्बाध चलती रही।
सुना भी है,पढ़ा भी है और देख भी पा रहा हूँ,समय के साथ ये सारी दुनिया भी गतिशील है,कालचक्र चल रहा है साथ ही साथ मानव समाज भी गतिशील है ,नित दिन विकासशील से विकसित होने को अग्रसित है।परन्तु हिंदुस्तान को जरा समझने की कोशिश करता हूँ तो मेरे सारे तर्क कुतर्क हो जाते है लिहाजा इस निष्कर्ष पे पहुचता हूँ कि दुनिया की एक मात्र इतिहास जो विकसित से अविकसित की ओर बढ़ा, वो हमारा हिन्दुस्तांन है।
"सोने की चिड़ियाँ" ने इतना लंबा सफर तय कर लिया कि हिंदुस्तान कब पीछे छूट गया उसे भी पता नहीं चल पाया।
               विश्लेषण के तालाब में जरा सा गोता लगाएंगे तो शासन  के डूब जाने या उबरने का आभास तो हो ही जाता है, साथ ही साथ  यह समझ पाना भी आसान हो जाता है कि परिवार चलना हो या साम्राज्य,दोनो के मूल principle एक ही है।किसी भी परिवार के पतन की शुरुआत तब होती है जब घर का प्रधान दिशाहीन हो जाये ठीक उसी प्रकार किसी देश या साम्राज्य का पतन तब शुरू होता है जब राजा दिशाहीन हो जाये।
कभी कभी आप ऐसे गलती कर देते है जिसके कारण सम्पूर्ण आने वाली पीढ़ी प्रभावित होती है।विजेता अशोक भी इससे अछूते नहीं रह पाए और सुख, शांति और अहिंसा को समाज मे बनाये रखने वाले सबसे बड़े अस्त्र "हिंसा" को छोड़ दिया।
जब शासक ही कमजोर हो जाये तो उस राज्य का विघटन निश्चित है,यही हुआ भी और एक विशाल किला ताश के पत्तों की तरह ढहने लगा।दक्षिण में श्रीलंका से लेकर उत्तर में यूनान और न जानें कितने प्रान्त हिंदुस्तान की विजय गाथा का प्रमाण था सब एक-एक कर टूटते गए और पारिणाम स्वरूप भारत माता के अखंड रूप खंड-खंड और  विकृत होकर आज हमलोगों के सामने है।
हम ऐसे देश के वासी है जहाँ खून के बदले खून की भावना नहीं होती ,परंतु सामने दुश्मन खड़ा हो युद्ध को तब आप उससे शांति की बात नहीं कर सकते।युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है।
शब्दो को विराम दूं इससे पहले निष्कर्ष से थोड़ा पहले की बात   यह है कि दुनिया शांति अहिंसा और भाईचारे से तब चलती है जब आप अशांति ,हिंसा और द्वेष का शस्त्र चलाना जानते हों।
निष्कर्ष अगले अंक में कुछ विशेष तथ्यों के साथ लेकर आऊंगा।
आभार


Sunday 21 July 2019

बचपन(भाग-२)

घुटनों के बल लुढकते-2 हम कब कैसे अपने पैरों पे खड़े होकर चलने लगते है ,ये बेहतर समझ तब आने लगता है ,जब हम स्कूल भेजे जाने लगते है। किसी मानसिक विरह की वेदना से कम नहीं होता स्कूल जाना वो भी तब जब स्कूल के प्रथम दिन ही प्रार्थना सभा में भरी भीड़ के बीच गुरु द्वारा  आपके गाल पर जोरदार तमाचा welcome स्वरूप मिला हो।उस शारीरिक चोट से  कहीं ज्यादा वो मानसिक पीड़ा थी जो कि भरी महफ़िल में सारेआम इज्जत जाने जैसा था।
हा!हा!हा!प्रथम स्कूल ,प्रथम दिन,प्रातःकाल,क्या शानदार स्वागत था और उसपे जरा सोचिए!स्कूल से घर आते ही सब लोग खुश होकर पूछते -कैसा रहा स्कूल का पहला दिन?
इस प्रश्नोत्तर के भावनाओं को शब्दों में बयां कर देना बईमानी होगी फिर भी कम शब्दों में 'बहुत अच्छा रहा' कह कर बच  निकलने की कोशिश  करता और हद तो तब हो जाती जब कोई मेरे एकांतवास को तोड़कर ,आकर बोले बहुत मजा आया होगा स्कूल में।।

यहीं से शुरु होती स्कूल न जाने के बहाने का दौर, जो दो-एक बार तो काम कर  जाता है पर बार बार आप अपना पेटदर्द नहीं करा सकते,तो स्कूल जाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है।शुरूआती दिनों में  पढ़ाई में मेरा मन कभी नहीं लगता था,मेरी पढ़ाई By Force होती थी Not By Choice और इसलिए जब कभी choice का ऑप्शन मिला तो हमने उसका जी भर गलत  फायदा उठाया।।

याद आती  है जब Choice के कारण मैंने 'अ' के बाद 'आ' सीखने में 5 दिन लगा दिए पर जब Force लगा तो 10 min में ही सीख  गया। Present Tense, Past Tense ,Future Tense ,मेरे बाल जीवन का बहुत बड़ा Tension बन गया था।दादा जी Chemistry के प्रोफेसर थे,डर के साये में हर झण हुआ करता कि कहीं उनसे आँखें चार न हो जाये और विशेष ज्ञान यानी विज्ञान के प्रश्नों के बौछार से मेरा अल्पज्ञान लहूलुहान  न हो जाये,उनसे बचते बचते अपने चाचाश्री नहीं तो कोई और,यानी कि मेरी स्थिति ऐसे थी जैसे आप बारिश में अपने कपड़े को कीचड़ से बचाने की कोशिश में फिसल जाते हो और कीचड़मय हो जाते हो।।

छात्रों का शैक्षणिक वर्गीकरण सामन्यतः 3 प्रकार के होते हैं-
1)भुस्कोल-poor. 2)ठीक -ठाक-average.3)तेज-Brilliant.
उन दिनों मुझे आप 'ठीक-ठाक' से 'तेज' के बीच की श्रेणी  में जहाँ भी रख देते Fit बैठ जाता और इसलिए कभी भी कक्षा में प्रथम स्थान नहीं ला पाया।हर बार Class में First होते होते जरा से अंक से फिसल जाता,और फिर शुरू होता घर में  विश्लेषण का दौर। माँ -पापा के नोक-झोंक का Side effect रह-रह कर मुझपे पड़ता और में निरीह प्राणी स्वरूप ,अश्रुधार में डूबा किसी अतिथि के आ जाने का इन्तेजार करता रहता ताकि मेरे ऊपर का Side effect कम हो और इसलिए मैं ""मार कम बपरहेत ज्यादा" की कहावत को सही करने हेतु कोई कसर नहीं छोड़ता।'अगली बार अच्छे से पढ़ना ' सुनने के साथ ही सब ठीक हो जाता ,'अगली बार'तो कभी नहीं आ पाया खैर उस समय की पिटाई से जरूर बच जाता।
और फिर मेरी पढ़ाई के विश्लेषण का दौर कई दिनों तक चलता रहता और फिर एक बड़ी रोचक उदारहरण किसी ने प्रस्तुत किया,जरा गौर से सुनियेगा-"जिस तरह सत्ता की कुर्सी मिलते ही नेताजी कभी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते ठीक उसी प्रकार एक बार अगर 'ऋषि' First आ गया तो वो कभी  भी Second होना नहीं चाहेगा"और प्राइवेट स्कूल से बेहतर सरकारी ही है जहाँ सुविधाये कम है, इसलिए बच्चे मेहनत करते है।बात में दम था सो मेरा नामांकन सरकारी स्कूल में करा  दिया गया।
आज़ादी के इतने साल बाद भी जिनके सर पे छत न हो,पीने का स्वच्छ पानी नसीब न हो,खाने को अन्न न हो,भयंकर कुपोषण का शिकार हो,फटे shirt से हड्डियां गिना जाए और डोराडोर के भरोसे पैंट लटका कर अपनी इज्जत बचाने वाला सरकारी स्कूल के छात्र भला मुझे क्या हरा पायेगा, बालमन ही सही पर मैं बार बार खुश होता।मैं अतिविश्वास  में इतना सराबोर हो गया कि खरगोश की तरह  कछुए को कम आंककर विद्वता के भ्रमित निद्रा में कब सो गया इसकी भनक तब लगी जब कछुआ मुझसे पहले मंजिल पहुच चुका था।मैं फिर से First नहीं आ पाया।
इस घटना ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और आत्मग्लानि में इस तरह डूबने लगा जैसे गले मे कोई ठोस गीला गोलाकार अटक रहा हो।
वो कहते है ना"जब जागा तभी सवेरा",इस अंधेरी सोच का घना कोहरा छटने वाला था और एक नई सुबह मेरा इन्तेजार कर रही थी।
Continue.....
आभार।

Saturday 20 July 2019

बचपन(भाग१)

बचपन कितनी शीतलता और चंचलता ली होती हैं,इसका एहसास तब होता है,जब किसी नन्हें  को नज़रो के सामने पल्लवित होता देखते है।
उस नन्ही जान में खुद को महसूस करते और मन मद्धम मद्धम  गुनगुनाने लगता 'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन 'और डूब जाते है उस दुनिया मे,
जब आम के पेड़ों की एक टिकोला पाने को दिन-दिन भर बगीचे में लगे रहते थे,जब बसंत में कोयल से कुहू कुहू की तान मिलाया करते थे और यह दौर तब तक चलता  जब तक माँ के थपेड़े न पर जाएं,पतंग उड़ाने को पैर में काँटो की परवाह किसे थी,मन पूरी तरह पतंगा होता था।
वो पेंसिल,वो स्लेट और फिर उसपे अपनी प्रतिभा दिखाना,अंत मे उसे भीगे कपड़े से पोछ देना,हो गयी पढ़ाई,कितना पढ़ते थे उन दिनों,जब आंगन में क्रिकेट की मैच हुआ करता था और 1लन(run),2 लन 6 लन बनाकर सपनो के तेंदुलकर हुआ करते थे।
हर शाम किसी ताजी सुबह से कम होती थी क्या!चंदा मामा की शीतलता आंगन में लोटने-पोटने को मजबूर कर देती,वो चाँद में बैठी बूढ़ी औरत कितना सुकून देती थी,घूम घूम कर रोटी उस पे नमक और तेल का 'रोल'शायद आज के किसी भी वेग रोल से सौ टका बेहतर था।
वो डमरू बजा कर बर्फ की icecream वाले का गलियो में घूमना,थोड़े से चावल के बदले या मक्कई के भुट्टे बदले लाल,पिला नीला बर्फ के मजे लेना किसी स्वर्गानुभव से कम था क्या।
मन गुदगुदा जाता है याद कर जब स्कूल के पेड़ की छांव में जमीन पर बोरे लिए बैठते थे और पूरी दुनिया की कहानियां रची जाती थीं,पढ़ाई की फिकर क्या,नज़र तो दूसरे के लंच बॉक्स पे हुआ करता था,खुद का अच्छा से अच्छा लंच भी दूसरे मित्र के लंच के सामने कम स्वादिष्ट लगता था,तभी तो अपने लंच का अंगूर,सेब,अमरूद,आदि दूसरे सहपाठी के "सत्तू के लड्डू" से बदल लिया करते थे।
पानी की बोतल लिए कोई परदेसी कभी कभार हमारी गलियो में मिलता था तो धिमि- धिमी मुस्कान छूटती थी और खुद को आश्चर्यचकित और धनवान दोनो समझता था कि पानी तो हम कही भी टोटी में मुह लगाकर पी लेते है,पता नही था यही बोतलबंद" जल ही जीवन " मेरी प्यासी आत्मा को तृप्त करेगी।
खैर ,वक़्त अपना रूप बदल लें पर ये यादें  अभी भी एकदम ताजी है,मानो अभी-अभी मूंग के फुले दाने अंकुरित हुए हो।
सादगी , सरलता,निश्चल एवं निर्दोष ये सारी गुण बचपन मे ही हो सकते है,
वापस तो नहीं ला सकता पर अपने शब्दों से इसे आपलोगो के बीच रखकर बचपन को फिर से जीवंत करने की कोशिश करता रहूंगा।
आभार।