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Sunday 21 July 2019

बचपन(भाग-२)

घुटनों के बल लुढकते-2 हम कब कैसे अपने पैरों पे खड़े होकर चलने लगते है ,ये बेहतर समझ तब आने लगता है ,जब हम स्कूल भेजे जाने लगते है। किसी मानसिक विरह की वेदना से कम नहीं होता स्कूल जाना वो भी तब जब स्कूल के प्रथम दिन ही प्रार्थना सभा में भरी भीड़ के बीच गुरु द्वारा  आपके गाल पर जोरदार तमाचा welcome स्वरूप मिला हो।उस शारीरिक चोट से  कहीं ज्यादा वो मानसिक पीड़ा थी जो कि भरी महफ़िल में सारेआम इज्जत जाने जैसा था।
हा!हा!हा!प्रथम स्कूल ,प्रथम दिन,प्रातःकाल,क्या शानदार स्वागत था और उसपे जरा सोचिए!स्कूल से घर आते ही सब लोग खुश होकर पूछते -कैसा रहा स्कूल का पहला दिन?
इस प्रश्नोत्तर के भावनाओं को शब्दों में बयां कर देना बईमानी होगी फिर भी कम शब्दों में 'बहुत अच्छा रहा' कह कर बच  निकलने की कोशिश  करता और हद तो तब हो जाती जब कोई मेरे एकांतवास को तोड़कर ,आकर बोले बहुत मजा आया होगा स्कूल में।।

यहीं से शुरु होती स्कूल न जाने के बहाने का दौर, जो दो-एक बार तो काम कर  जाता है पर बार बार आप अपना पेटदर्द नहीं करा सकते,तो स्कूल जाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है।शुरूआती दिनों में  पढ़ाई में मेरा मन कभी नहीं लगता था,मेरी पढ़ाई By Force होती थी Not By Choice और इसलिए जब कभी choice का ऑप्शन मिला तो हमने उसका जी भर गलत  फायदा उठाया।।

याद आती  है जब Choice के कारण मैंने 'अ' के बाद 'आ' सीखने में 5 दिन लगा दिए पर जब Force लगा तो 10 min में ही सीख  गया। Present Tense, Past Tense ,Future Tense ,मेरे बाल जीवन का बहुत बड़ा Tension बन गया था।दादा जी Chemistry के प्रोफेसर थे,डर के साये में हर झण हुआ करता कि कहीं उनसे आँखें चार न हो जाये और विशेष ज्ञान यानी विज्ञान के प्रश्नों के बौछार से मेरा अल्पज्ञान लहूलुहान  न हो जाये,उनसे बचते बचते अपने चाचाश्री नहीं तो कोई और,यानी कि मेरी स्थिति ऐसे थी जैसे आप बारिश में अपने कपड़े को कीचड़ से बचाने की कोशिश में फिसल जाते हो और कीचड़मय हो जाते हो।।

छात्रों का शैक्षणिक वर्गीकरण सामन्यतः 3 प्रकार के होते हैं-
1)भुस्कोल-poor. 2)ठीक -ठाक-average.3)तेज-Brilliant.
उन दिनों मुझे आप 'ठीक-ठाक' से 'तेज' के बीच की श्रेणी  में जहाँ भी रख देते Fit बैठ जाता और इसलिए कभी भी कक्षा में प्रथम स्थान नहीं ला पाया।हर बार Class में First होते होते जरा से अंक से फिसल जाता,और फिर शुरू होता घर में  विश्लेषण का दौर। माँ -पापा के नोक-झोंक का Side effect रह-रह कर मुझपे पड़ता और में निरीह प्राणी स्वरूप ,अश्रुधार में डूबा किसी अतिथि के आ जाने का इन्तेजार करता रहता ताकि मेरे ऊपर का Side effect कम हो और इसलिए मैं ""मार कम बपरहेत ज्यादा" की कहावत को सही करने हेतु कोई कसर नहीं छोड़ता।'अगली बार अच्छे से पढ़ना ' सुनने के साथ ही सब ठीक हो जाता ,'अगली बार'तो कभी नहीं आ पाया खैर उस समय की पिटाई से जरूर बच जाता।
और फिर मेरी पढ़ाई के विश्लेषण का दौर कई दिनों तक चलता रहता और फिर एक बड़ी रोचक उदारहरण किसी ने प्रस्तुत किया,जरा गौर से सुनियेगा-"जिस तरह सत्ता की कुर्सी मिलते ही नेताजी कभी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते ठीक उसी प्रकार एक बार अगर 'ऋषि' First आ गया तो वो कभी  भी Second होना नहीं चाहेगा"और प्राइवेट स्कूल से बेहतर सरकारी ही है जहाँ सुविधाये कम है, इसलिए बच्चे मेहनत करते है।बात में दम था सो मेरा नामांकन सरकारी स्कूल में करा  दिया गया।
आज़ादी के इतने साल बाद भी जिनके सर पे छत न हो,पीने का स्वच्छ पानी नसीब न हो,खाने को अन्न न हो,भयंकर कुपोषण का शिकार हो,फटे shirt से हड्डियां गिना जाए और डोराडोर के भरोसे पैंट लटका कर अपनी इज्जत बचाने वाला सरकारी स्कूल के छात्र भला मुझे क्या हरा पायेगा, बालमन ही सही पर मैं बार बार खुश होता।मैं अतिविश्वास  में इतना सराबोर हो गया कि खरगोश की तरह  कछुए को कम आंककर विद्वता के भ्रमित निद्रा में कब सो गया इसकी भनक तब लगी जब कछुआ मुझसे पहले मंजिल पहुच चुका था।मैं फिर से First नहीं आ पाया।
इस घटना ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और आत्मग्लानि में इस तरह डूबने लगा जैसे गले मे कोई ठोस गीला गोलाकार अटक रहा हो।
वो कहते है ना"जब जागा तभी सवेरा",इस अंधेरी सोच का घना कोहरा छटने वाला था और एक नई सुबह मेरा इन्तेजार कर रही थी।
Continue.....
आभार।

2 comments:

  1. पढने के बाद काफी देर तक बचपन की यादों में खो गया | जिस तरह लोहा को कोई आकर देने के लिए उसे आग में गर्म कर हथोरा से ठोक- ठोक के अच्छा आकर दिया जाता है, उसी तरह हमारा बचपन होता है, हमे अच्छा बनाने के लिए हमें विभिन्न तरह के process से गुजरा जाता है , जिसे हम by force या by choice का नाम देते हैं |

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    1. बिल्कुल सहे बात है,लेकिन इस बात को उस समय ज्यादातर बच्चे नाहे समझ पाते है।

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