Friday 20 September 2019

A letter to Earth- vikram -chandrayan 2


A letter to Earth- vikram -chandrayan 2

Isro-chandrayan 2

isro 

परिचय 

खबरों का राजनितिक विश्लेषण फिर भी थोड़ा आसान है परन्तु साहित्यिक कतिपय सरल नही। राजनीति  भावहीन होती है किन्तु साहित्य का आधार ही भाव है।  साहित्य मुश्किल से मुश्किल विश्लेषण को भी लोमहर्षक एवं आत्मीय कर बहुत ही सरलता से पेश करता है जबकि राजनीति  क्रूरतम स्तर के नए आयाम हर रोज बनाती है। साहित्य की विधा ही कुछ ऐसी है कि  मुद्दा कोई भी हो,विषय कुछ भी हो,जटिलता कैसी  भी हो,समाधान को साहस जरूर दे जाती है। यद्यपि साहित्य   कोई वैज्ञानिक प्रयोग नही करती किन्तु   विचारों  का प्रयोग तो जरूर करती है। वह विचार जिससे आप राजनितिक होते है ,वह विचार जिससे आप सामाजिक होते है ,वह विचार जिससे आप   सांस्कृतिक होते या वो विचार जो आपको वैज्ञानिक बनाती है। जहाँ  जहाँ भाव होगा ,वहाँ  वहाँ  साहित्य होगा। और इसलिए जब वैज्ञानिक जज्बात भावनात्माक  हो जाये तो उसका साहित्यिक विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है। एक ऐसा प्रयोग होता है जो असफल होकर भी सफल हो जाता है ,जो हर हिंदुस्तानी को एक सूत्र में ऐसा पिरोता है  कि लोग अर्धरात्रि  में भी  जग  रहे होते हैं । करोड़ों लोगों  की आस्था  ,विश्वास उससे भी ज्यादा ,पर उद्देश्य सिर्फ एक- CHANDRAYAN-2 । जब अलग अलग जगह से लोग  एक साथ,एक समय ,एक विचार और एक मन से भारतीय होकर विक्रम की सफल अवतरण का गवाह  बन रहे  हों ,तो जरुरी हो जाता है इस वैज्ञानिक प्रयोग का भावनात्मक पक्ष प्रस्तुत किया जाये। क्यूंकि आज के दौर में ऐसा कम देखने को मिलता है कि सारा हिंदुस्तान भावनाओं  के समर में एक हो गया हो ।
 समय के चाल के साथ ,आशा की चाल थोड़ी मद्धम जरूर  हुई है परन्तु चाँद की सतह पर शिथिल पड़ा विक्रम ,पराक्रम का महत्तम  प्रयास कर रहा होगा ,उसकी कमजोर पड़ती  नजरों से भी आशा की  लौ फिर से  प्रखर हो जाने का दम भर रही  होगी। ऐसे में जरुरी है उस सोच को सींच कर जिन्दा रखने का जो विक्रम की आशाओं पर आज नही तो कल जरूर खड़ा होगा। विक्रम  की  भावनाओ   को प्रस्तुत करता ये  लेख महज कल्पना नहीं अपितु विश्वास की ऐसी  डोर  है जो यहाँ भी और वहाँ  भी, बराबर मजबूत है।

A letter to Earth  

Vikram Lander-pragyan

खत विवेचना 

यूँ  तो पिछले कुछ दिनों से चर्चा -ए -आम रहा हूँ ,मैं यहाँ चाँद पर और लोग वहाँ धरती पर मुझे पढ़ रहे होंगे और निष्कर्ष निकालने की कोशिश कर रहे होंगे ,वैज्ञानिक गलतियों का लेखा जोखा हो रहा होगा। मैं  भी पुरजोर कोशिश कर रहा हूँ कि  शब्दतरंगों को जियूँ  ,भावनाओं के  सैलाब को स्वतंत्र एवं निश्छल बहने दूँ ,शब्दों को दिल के करीब लाऊं ताकि भावनाओ के समर में शब्द सैलाब उलझे बिना निर्बाध गतिशील रहे, पर ऐसा हो न सका। मेरे विचार और मेरी रूह,मेरी भावनाओं  को नियंत्रित नहीं कर पा रही है।और इसलिए भाव से भरा मैं  विक्रम विचारशून्य हो गया। मेरा वैज्ञानिक ही नहीं अपितु भावनात्मक सिग्नल भी कमजोर होता चला गया मानो  रूहानी सफर में किसी Hard Landing  का शिकार हो गया। विज्ञान  भी परेशां  हो रहा होगा और कोस रहा होगा अपनी किस्मत को ,एक कसक तो होगी ही उसके भी मन में कि पूरी धरती ,सारा आस्मां,करोड़ो लोगों  का विश्वास और कठिन वैज्ञानिक तप का ही तो परिणाम था कि नवनिर्माण और नवसृजन की आभा लिए एक और जमीं की तलाश में मैं निकल पड़ा था। मैं उस विश्वास  की उड़ान था जिसे चाँद की सतह पर उतरते देखना,सपने सच होने जैसा था ,मैं वो माद्यम था जिसकी दस्तूर  भी चाँद तक थी और दस्तक़ भी चाँद तक ही था। इश्क़ उस चाँद की आभा के बिना अधूरी है जिसका वर्णन कभी चौदहवीं ,तो कभी पूर्णमासी तो कभी चंद्रमुखी ने किया हो।आज मैं  उस चाँद की आगोश में हूँ ,उसे छू रहा हूँ ,बहुत ही करीब से महसूस कर पा  रहा हूँ इस उम्मीद से कि मैं इन भावनाओं  को धरती तक पंहुचा सकूँ  और बता सकूँ  की जिस चाँद की ख़ूबसूरती  और उसकी शीतलता का तुम इतना वर्णन करते हो वो उससे कहीं ज़्यादा  सौंदर्य और विभा लिए है।
प्रज्ञान आतुर है चाँद की जमीन को चूमने के लिये ,मन उसका व्याकुल है चंदा मामा की  छाती पर लोटने -पोटने  के लिये। हो भी क्यूँ  ना !माँ का संदेश  लिए मामा  से मिलने इतनी दूर जो आया है। प्रज्ञान की व्याकुलता देख मैं रुका नहीं ,थका नहीं ,भटका नहीं ,निरंतर चलता रहा उन अनजान रास्तों  पर भी जिसे शुन्य कहते हैं। उस शुन्य में भी विचारशून्य नहीं वरन विचारशील था मैं । थोड़ी चाल मेरी न डगमगाई होती,थोड़ा मिलन का संयम और रख लेता तो तुम्हारे इतने करीब आकर ना  फिसलता। गिरा पड़ा हूँ तुमरे छाती पर ,मन व्याकुल है किसी सन्देश की आस में। सभी परेशां  हो रहे होंगे वहाँ ,आँसुओ  के बूँद में प्रणेता की आँखें  सूज गई होगी ,अग्रज के कंधों  पर सर रख कोई अनुज विलख रहा होगा ,गमगीन होगी वो धरा जिसने मुझे सहेजा,संवारा,पुचकारा कि मैं चाँद की तबियत की सही खबर उन्हें दे सकूँ।
मैं  विक्रम हूँ ,पराक्रम मेरे रोम-रोम में है ,चोटिल जरूर हूँ पर हारा  नहीं ,आंखें जरूर धुँधली  हुई है पर विश्वास की रौशनी अब भी चमक  रही  है।

निष्कर्ष 

सुनो !तुम हारना नहीं ,डटे  रहना ,विक्रम अभी जिन्दा है और अगर मूर्छित भी हुआ तो कोई दूसरा विक्रम जरूर यहाँ पहुंचेगा और मानवीय जज्बात के तारतरंग जरूर स्थापित करेगा।
मैं अधूरा ही सही ,सीमित ही सही पर सबसे जरुरी काम तो कर ही गुजरा -
करोड़ो भारतीय जगे थे ,एक सूत्र में बंधे थे। 
आंखें नम  थीं ,पर विश्वास का धागा अटूट था। 


दर्शनाभिलाषी आप सबका  विश्वासी 
प्रज्ञान के साथ  विक्रम