बचपन कितनी शीतलता और चंचलता ली होती हैं,इसका एहसास तब होता है,जब किसी नन्हें को नज़रो के सामने पल्लवित होता देखते है।
उस नन्ही जान में खुद को महसूस करते और मन मद्धम मद्धम गुनगुनाने लगता 'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन 'और डूब जाते है उस दुनिया मे,
जब आम के पेड़ों की एक टिकोला पाने को दिन-दिन भर बगीचे में लगे रहते थे,जब बसंत में कोयल से कुहू कुहू की तान मिलाया करते थे और यह दौर तब तक चलता जब तक माँ के थपेड़े न पर जाएं,पतंग उड़ाने को पैर में काँटो की परवाह किसे थी,मन पूरी तरह पतंगा होता था।
वो पेंसिल,वो स्लेट और फिर उसपे अपनी प्रतिभा दिखाना,अंत मे उसे भीगे कपड़े से पोछ देना,हो गयी पढ़ाई,कितना पढ़ते थे उन दिनों,जब आंगन में क्रिकेट की मैच हुआ करता था और 1लन(run),2 लन 6 लन बनाकर सपनो के तेंदुलकर हुआ करते थे।
हर शाम किसी ताजी सुबह से कम होती थी क्या!चंदा मामा की शीतलता आंगन में लोटने-पोटने को मजबूर कर देती,वो चाँद में बैठी बूढ़ी औरत कितना सुकून देती थी,घूम घूम कर रोटी उस पे नमक और तेल का 'रोल'शायद आज के किसी भी वेग रोल से सौ टका बेहतर था।
वो डमरू बजा कर बर्फ की icecream वाले का गलियो में घूमना,थोड़े से चावल के बदले या मक्कई के भुट्टे बदले लाल,पिला नीला बर्फ के मजे लेना किसी स्वर्गानुभव से कम था क्या।
मन गुदगुदा जाता है याद कर जब स्कूल के पेड़ की छांव में जमीन पर बोरे लिए बैठते थे और पूरी दुनिया की कहानियां रची जाती थीं,पढ़ाई की फिकर क्या,नज़र तो दूसरे के लंच बॉक्स पे हुआ करता था,खुद का अच्छा से अच्छा लंच भी दूसरे मित्र के लंच के सामने कम स्वादिष्ट लगता था,तभी तो अपने लंच का अंगूर,सेब,अमरूद,आदि दूसरे सहपाठी के "सत्तू के लड्डू" से बदल लिया करते थे।
पानी की बोतल लिए कोई परदेसी कभी कभार हमारी गलियो में मिलता था तो धिमि- धिमी मुस्कान छूटती थी और खुद को आश्चर्यचकित और धनवान दोनो समझता था कि पानी तो हम कही भी टोटी में मुह लगाकर पी लेते है,पता नही था यही बोतलबंद" जल ही जीवन " मेरी प्यासी आत्मा को तृप्त करेगी।
खैर ,वक़्त अपना रूप बदल लें पर ये यादें अभी भी एकदम ताजी है,मानो अभी-अभी मूंग के फुले दाने अंकुरित हुए हो।
सादगी , सरलता,निश्चल एवं निर्दोष ये सारी गुण बचपन मे ही हो सकते है,
वापस तो नहीं ला सकता पर अपने शब्दों से इसे आपलोगो के बीच रखकर बचपन को फिर से जीवंत करने की कोशिश करता रहूंगा।
आभार।
उस नन्ही जान में खुद को महसूस करते और मन मद्धम मद्धम गुनगुनाने लगता 'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन 'और डूब जाते है उस दुनिया मे,
जब आम के पेड़ों की एक टिकोला पाने को दिन-दिन भर बगीचे में लगे रहते थे,जब बसंत में कोयल से कुहू कुहू की तान मिलाया करते थे और यह दौर तब तक चलता जब तक माँ के थपेड़े न पर जाएं,पतंग उड़ाने को पैर में काँटो की परवाह किसे थी,मन पूरी तरह पतंगा होता था।
वो पेंसिल,वो स्लेट और फिर उसपे अपनी प्रतिभा दिखाना,अंत मे उसे भीगे कपड़े से पोछ देना,हो गयी पढ़ाई,कितना पढ़ते थे उन दिनों,जब आंगन में क्रिकेट की मैच हुआ करता था और 1लन(run),2 लन 6 लन बनाकर सपनो के तेंदुलकर हुआ करते थे।
हर शाम किसी ताजी सुबह से कम होती थी क्या!चंदा मामा की शीतलता आंगन में लोटने-पोटने को मजबूर कर देती,वो चाँद में बैठी बूढ़ी औरत कितना सुकून देती थी,घूम घूम कर रोटी उस पे नमक और तेल का 'रोल'शायद आज के किसी भी वेग रोल से सौ टका बेहतर था।
वो डमरू बजा कर बर्फ की icecream वाले का गलियो में घूमना,थोड़े से चावल के बदले या मक्कई के भुट्टे बदले लाल,पिला नीला बर्फ के मजे लेना किसी स्वर्गानुभव से कम था क्या।
मन गुदगुदा जाता है याद कर जब स्कूल के पेड़ की छांव में जमीन पर बोरे लिए बैठते थे और पूरी दुनिया की कहानियां रची जाती थीं,पढ़ाई की फिकर क्या,नज़र तो दूसरे के लंच बॉक्स पे हुआ करता था,खुद का अच्छा से अच्छा लंच भी दूसरे मित्र के लंच के सामने कम स्वादिष्ट लगता था,तभी तो अपने लंच का अंगूर,सेब,अमरूद,आदि दूसरे सहपाठी के "सत्तू के लड्डू" से बदल लिया करते थे।
पानी की बोतल लिए कोई परदेसी कभी कभार हमारी गलियो में मिलता था तो धिमि- धिमी मुस्कान छूटती थी और खुद को आश्चर्यचकित और धनवान दोनो समझता था कि पानी तो हम कही भी टोटी में मुह लगाकर पी लेते है,पता नही था यही बोतलबंद" जल ही जीवन " मेरी प्यासी आत्मा को तृप्त करेगी।
खैर ,वक़्त अपना रूप बदल लें पर ये यादें अभी भी एकदम ताजी है,मानो अभी-अभी मूंग के फुले दाने अंकुरित हुए हो।
सादगी , सरलता,निश्चल एवं निर्दोष ये सारी गुण बचपन मे ही हो सकते है,
वापस तो नहीं ला सकता पर अपने शब्दों से इसे आपलोगो के बीच रखकर बचपन को फिर से जीवंत करने की कोशिश करता रहूंगा।
आभार।
वाह क्या बात है , गज़ब! बहुत खूब । अपने बचपन की बीते हुए क्षणों शब्दों मे बयान करने का तरीका बहुत ही अच्छा है ।
ReplyDeleteइसी तरह लिखते रहो।
बब्बू चाचा
Really nice....as spoken by babbu chacha
ReplyDeleteReally nice one as spoken by babbu chacha
ReplyDeleteपरत दर परत किताब के सारे पन्ने को इस मंच के जरिये उलट -पलट न करते हुए सीधे आप सब के बीच रखूंगा।
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