Thursday 15 August 2019

गांधीगिरी | Gandhigiri


गांधीगिरी | Gandhigiri

"गांधी" शब्द किसी 'नाम' की प्रामणिकता का वो आधार है जो खास को आम से अलग करता है।यह परिचय है उस महान संस्कृति की  जिसका प्रतिनिधित्व लंगोट,लाठी,और चश्मे वाले एक फ़क़ीर ने किया और "गांधीगिरी" की ऐसी  मिशाल पेश की कि पूरी दुनिया मंत्रमुग्ध हो गयी।यह वही गांधी है जिसने अंग्रेजो को भी गांधीगिरी सीखा दिया और जो अमन और शांति का प्रतीक बन "सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय" को धरातल पर फलीभूत किया ।यह पहचान भी है,अभिमान भी है,संस्कार भी है,सहशीलता भी है,स्वभाव भी है और धर्म भी है तभी तो ग्रंथो में लिखित "अहिंसा परमो धर्म" हमारी गौरवशाली परंपरा का हिस्सा रही है।उपरोक्त बातों का सार निकाला जाए तो गांधी एक शब्द ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा एक 'विचार' है ,एक चिंतन है और एक निश्चल जीवनप्रणाली का आधार स्तंभ है।

मंथन 

वक़्त बदला, सोच बदले, सभ्यताओं का आधुनिकीकरण शुरू हुआ,कदम से कदम मिलाकर चलने वाले दौर बदले और Fast and Furious का जमाना आ गया,संचार के माध्यम विकसित हुए,Social Media क्रान्ति हुई ,विचारो का आदान-प्रदान सुलभ हुआ और इन सबके बीच जो एक बड़ा परिवर्तन हुआ वो है मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक पतन। मुद्दा राजनीतिक है तो राजनीति की ही बात करूंगा परंतु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दरकिनार नहीं किया जा सकता है क्योंकि राजनीति का एक उत्कृष्ट मापदंड है चरित्र और नैतिकता।इन दोनों से फिसले तो राजनीति भी हाथ से फिसलने लगती है।
मोदी Vs गांधी का तुलनात्मक विश्लेषण सर्वथा अनुचित है परंतु गांधीगिरी की वैचारिक प्रसांगिकता को कहीं न कहीं ठेस पहुँची ,कोई आघात  हुआ,जैसे प्रकृति अपना नियम कानून खुद बनाती  ठीक से प्रकार राजनीति भी अपनी नीति और सिद्धान्त खुद तय करती है,राजनीति को भी अपना वजूद बरकरार रखना होता है तभी तो गांधी नाम रखने वाले से ज्यादा गांधीगिरी जीने वाले किसी 'मोदी' का उदय होता है।गांधी के नाम पर दशकों शासन करने वाले शायद गांधीगिरी भूल गए ,शायद वो विचाधारा कहीं पीछे छूट गई  जो राष्ट्रहित की बात करती थी या फिर गुमान हो गया गांधी होने पर और चकाचौंध में जीने वाले "गांधीगिरी की लौ" को सम्हाल कर नहीं रख  सके।दुष्यंत कुमार की कविता बड़ी सटीक होती  है :-
"हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए"।
जब बात देशहित की हो,जब बात समाज की हो और जब बात अवाम की हो तो प्रश्न तो उठेंगे ही कि 353 के बड़े स्कोर को पीछा करने वाली कांग्रेस 55 पर ही धराशाई  क्यों हो गई? प्रश्न तो यह भी उठेंगे एक आल राउंड गांधीगिरी से भरी कांग्रेस जो कभी बीजेपी को 1 का स्कोर भी करने नहीं देती थी आज वो इतना बड़ा स्कोर खड़ा कैसे कर रही है?अटल जी याद आते  हैं :-
हार नहीं मानूँगा ,रार नहीं ठानूँगा ,
काल के कपाल पर लिखता हूँ मिटाता हूँ ,
गीत नया गाता  हूँ। 
दो निष्कर्ष निकाले जा सकते है या तो BJP ने गांधीगिरी को निभाया या कांग्रेस ने गाँधीगरी का त्याग किया या ये भी हो सकता है कि दर्शकदीर्घा में बैठे वो लोग जिन्हें हमेशा गांधीगिरी के नाम पर भ्रमित किया गया आज शायद गांधीगिरी के सही मायने को समंझने लगे हों।मेरी सहमति तीसरे  विचार से है।
वो कांग्रेस जो 60-65 सालों तक हिंदुस्तान के राजनीति कि केन्द्रबिन्दु रही आज किनारे पर भी बड़ी मुश्किल से नज़र आती है।ऐसे में राष्ट्रकवि दिनकर जी का स्मरण होता है:-
सदियों की ठंडी-बुझी राख सुलग उठी ,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह,समय के रथ का घर्घर -नाद सुनो ,
सिंघासन ख़ाली करो की जनता आती है। 

निष्कर्ष 

मुद्दा चाहे न्याय का हो,साम्प्रदायिकता का हो,किसान का हो,विकास का हो,घोटालों का हो,राज्यो का हो,देशनीति की हो,विदेशनीति की हो,370 का हो,ट्रिपल तलाक  हो  या राफेल का हो हर मुद्दे पर  हँस कर या फिर आँख मारकर भारत की संसदीय अस्मिता का उपहास उड़ाने वाले को जनता कब तक बर्दाश्त करती! कब तक बर्दाश करती उन चाटुकारो की नीति को जिसने आम नागरिक के जीवन को हासिये पर धकेल दिया वर्ना ऐसा कौन सा संसाधन नहीं था  कि हिंदुस्तान 60 सालो तक शुद्ध पानी को तरसता रहा,ऐसा कौन पोषण नीति नहीं था कि साल दर साल नौनिहाल  कुपोषण का शिकार होता रहा,ऐसा कौन सा ज्ञान नही था की अज्ञानता चहुओर  डेरा डाली हुई थी,आखिर वो कौन से युद्ध कला नही  थी कि हम 1962 का युद्ध हार गए| चाणक्य,आर्यभट्ट,जगदीश चंद्र बोस ,अशोक,तानसेन,शिवाजी, सी वी रमन न जाने कितने की विधा के पारंगत इस मिट्टी  की पहचान थे फिर भी  हम एक कृतज्ञ राष्ट्र नहीं बन पाये।
'कमी नीति में नहीं नियत में थी',जो आज के दौर में अत्यधिक ही झलक रहा है।परंतु भूलना नहीं चाहिए कि हम सूचना क्रांति के दौर में है,"झूट छुप नही सकता और सच्चाई बहुत दिनों तक दबाई नही  जा सकती"।

घनिष्ठता इटली से भी रखिये पर नमक की कीमत जरूर अदा कीजिये।जनेऊ पहन मंदिर-मंदिर और फिर जनेऊ उतार मस्जिद-मस्जिद से ज्यादा जरूरी है देशहित के विचारों को निर्भीक होकर रखने का,सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत रखने का।इसके लिए जरूरी है कि सोच सही हो।इस धर्मयुद्ध में आज कृष्ण की चेतावनी को अर्जुन समझे और जिम्मेदार बने तो ही जीत होगी नहीं तो कोई नही जीतेगा,सब लोग हारेंगे,इंसानियत हारेगा।
चायवाले को शायद ये बेहतर समझ है,मानवता ,राष्ट्रप्रेम,दृढ़संकल्प से गाँधीगरी को जिया जा सकता है तभी तो हिचक नहीं  होती निर्णय लेने में,तभी तो आशा की  लौ लिए हिंदुस्तान को मोदी के रूप में एक उदयीमान सूर्य दिख रहा है।
                     व्यक्तिगत असहमति जायज  है किन्तु देश से असहमति नही हो सकती

आभार
AUGUST KRANTI |अगस्त क्रांति,सोने की चिड़ियाँ,Blogging,बचपन(भाग१)



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